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________________ १५०८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : 'अवाह प्रभाकरभट्टः तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्तिगुप्तवीतरागनिविकल्पसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा सम्मतमेव । यदि पुनस्तथाविधामवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थवस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां astarकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टा सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् ॥ २५५ ॥ परमात्मप्रकाश अर्थ -- ' पुण्य-पाप समान है' यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट बोला- यदि ऐसा ही है तो जो लोग पुण्य-पाप को समान मानते हैं उनको दोष क्यों देते हो ? तब श्री योगीन्द्रदेव ने कहा यदि गुप्ति से गुप्त शुद्धात्मानुभूतिस्वरूप निर्विकल्पसमाधि में ठहरकर जो पुण्य-पाप को समान जानते हैं तो योग्य है, किन्तु इससे विपरीत जो निर्विकल्पसमाधि को न पाकर भी पुण्य-पाप को समान जानकर गृहस्थ अवस्था में दान-पूजादि शुभकार्यों को और तपोधन अवस्था में छहआवश्यक कर्मों को छोड़ देते हैं, वे दोनों बातों से भ्रष्ट हैं, अर्थात् निर्विकल्पसमाधि को भी प्राप्त नहीं कर सके और पुण्य को पाप के समान जानकर छोड़ दिया वे निन्दा के योग्य हैं। ऐसा जानना चाहिये । वर्तमान पंचमकाल में निर्विकल्पसमाधि अर्थात् शुक्लध्यान अथवा श्रीआरोहण तो प्रसम्भव है, क्योंकि ही संहनन है तथा प्राणी दुष्ट चित्तवाले हैं। वर्तमान में मनुष्य धर्मकार्यों से विमुख होते जा रहे हैं, पाप-प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। जिनका नाम सुनने मात्र से भोजन में अन्तराय हो जाती थी, आज उन्हीं मद्य, मांस आदि का सेवन उच्च कुलों में होने लगा है। सात व्यसन का सेवन दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । परिणामों में से दयाभाव उठता जा रहा है। जैन लोग शिकार खेलने लगे हैं । कुछ अध्यात्म - एकान्ती ऐसे भी जैन विद्वान हैं। जो प्रतिदिन देवदर्शन नहीं करते, रात के भोजन का त्याग नहीं है, अभक्ष्य भक्षरण का विचार नहीं, होटल में चाय आदि लेते हैं । जब जैनसमाज इस तेजी से पतन की ओर जा रहा है तब कुछ विद्वानाभास पुण्य और पाप को समान कहकर और उसका प्रचार करके जैनसमाज का और अपना दोनों का अहित कर रहे हैं । शंका- पुण्य और पाप दोनों के अभाव में मोक्ष होता है । अतः पुष्य सर्वथा उपाय कैसे हो सकता है ? समाधान - जीव की सिद्ध पर्याय ही नित्य है । 'सादिनित्यपर्यायार्थिको यथा सिद्धजीवपर्यायो नित्यः । " पर्यायार्थिकनय का दूसरा भेद सादि-नित्यपर्यायार्थिक है जैसे जीव की सिद्धपर्याय नित्य है । इसी सूत्र से यह भी सिद्ध हो जाता है कि जीव की सिद्धपर्याय के अतिरिक्त अन्य पर्यायें अनित्य हैं नाशवान हैं, अतः जीव की सिद्धपर्याय ही उपादेय है और अन्य पर्यायें नाशवान होने के कारण हेय हैं। इसीलिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार के आदि में सर्वसिद्धों को नमस्कार किया है । 'दत्त सव्वसिद्ध धुवममलमणोवमं गई पत्ते ।' यहाँ सिद्धों को ध्रुव अर्थात् अविनश्वर कहा है । और 'अमलं' विशेषरण के द्वारा यह बतलाया गया है कि सिद्धभगवान भावकर्म, द्रव्यकर्म श्रौर नोकर्ममल से रहित होने के कारण श्रमल हैं । १. आलापपद्धति । 2. 'ध्रु वामविनव 3. 'भावकर्म द्रव्यकर्मनो कर्ममलरहितत्वेन निर्मला....।' Jain Education International ' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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