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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५०७ विपरीत ही कहा गया है। इसलिये सोनगढ़ वालों की यह मान्यता, कि हिंसा करते समय कसाई के अल्प पुण्य होता है, ठीक नहीं है। -जं. ग. 23 मई १९६६ पृ.७ (१८) १. पुण्य व पाप में कथंचित् समानता, कथंचित् असमानता २. पुण्य की कथंचित् उपादेयता ३. पुण्य मोक्ष का सहकारी कारण है ४. निरतिशय पुण्य भी कथंचित् कदाचित् उत्थान का हेतु है ___ शंका-समयसार गाथा १४५ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पुण्य और पाप में हेतु आदि की अपेक्षा कोई भेद नहीं बतलाया है किन्तु 'पुण्य का विवेचन' नामक पुस्तक में पुण्य और पाप में भेद बतलाया गया है सो कैसे? समाधान-समयसार ग्रन्थ में आत्मा की शुद्धअवस्था की अपेक्षा कथन है । 'शुद्धावस्था समयस्यात्मनः प्रामृतं समयप्राभृतं' समयसार पृ. ५ श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है कि इस समयसारग्रन्थ में एकत्व विभक्त प्रात्मा का कथन करूंगा। 'तं एयत्तविहत्त दाएहं अप्पणो सविहवेण ।' अर्थ-मैं कुन्दकुन्दाचार्य प्रात्मा के निजविभव के द्वारा एकत्वविभक्तआत्मा को दिखलाता हूँ। जो आत्मा एक अभेदरत्नत्रय रूप से परिणत होकर तिष्ठता है तथा मिथ्यात्व, रागादि से रहित है और परमात्मस्वरूप है वह एकत्वविभक्त प्रात्मा है अर्थात परमात्मस्वरूप का कथन इस समयसार प्रन्थ में किया गया है। 'एकत्व विभक्त अभेवरत्नत्रयकपरिणतं मिथ्यात्वरागादिरहितं परमात्मस्वरूपमित्यर्थः।' समयसार पृ. १३ शुद्धात्मा या परमात्मा पुण्य-पाप दोनोंप्रकार के कर्मों से रहित है, अतः समयसार में शुद्धात्मा अथवा परमात्मा की अपेक्षा पुण्य-पाप को समान कहा गया है; किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने ही तत्त्वार्थसार में पुण्य और पाप में हेतु आदि की अपेक्षा भेद बतलाया है हेतुकार्य विशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः । हेतू शुभाशुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ॥ हेतु और कार्य की विशेषता से पुण्य और पाप कर्म में अन्तर है । पुण्य का हेतु शुभभाव है और पाप का हेतु अशुभभाव है । पुण्य का कार्य सुख है और पाप का कार्य दुःख है । इसप्रकार विवक्षा भेद से एक ही प्राचार्य ने पुण्य-पाप को समान भी कहा है और असमान भी कहा है। जो जीव शुक्लध्यान अर्थात् क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ नहीं हो सकते उनके लिए तो पुण्य और पाप असमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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