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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४७९ अर्थ-जिसके सद्भाव में जिस कार्य की उत्पत्ति हो और जिसके प्रभाव में कार्य की उत्पत्ति न हो, वह पदार्थ उस कार्य का कारण होता है, यह बात लोक में भी सुप्रसिद्ध है। 'यद्यस्मिन् सत्येव भवति चासति न भवति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् ।' ( धवल पु. १२।२८९) अर्थ-जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके न होने पर नहीं होता है, वह उसका कारण होता है। 'यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विद इति न्यायात् ।' (धवल पु. १४ पृ. १३) अर्थ-जो जिसके सद्भाव और असद्भाव का अविनाभावी होता है वह उसका है। यह कार्यकारण भाव के ज्ञाता कहते हैं, ऐसा न्याय है। कार्य-कारण भाव की इस व्याख्या से सिद्ध होता है कि तीर्थंकर आदि प्रकृतियों का बंध सम्यग्दर्शन आदि के सद्भाव में होता है और सम्यग्दर्शन आदि के अभाव में मिथ्यादृष्टि के तीर्थकर आदि प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है इसीलिये श्री अमृतचन्द्र आदि प्राचार्यों ने तीर्थंकर आदि प्रकृतियों के बन्ध का कारण सम्यग्दर्शन आदि को बतलाया है। तीर्थकर मादि प्रकृतियों का कारण मात्र सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु राग का सद्भाव भी कारण है, क्योंकि राग के सद्भाव में ही तीर्थंकर प्रकृति आदि का बन्ध होता है, राग के अभाव में वीतराग सम्यग्दृष्टि के तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध नहीं होता। यदि कहा जाय कि एक कार्य का एक ही कारण होता है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य मात्र एक कारण से उत्पन्न नहीं होता किन्तु अनेक कारणों रूप अखिल अनुकूल सामग्री से और प्रतिकूल कारणों के अभाव में उत्पन्न होता है । कहा भी है 'सामग्री जनिका कार्यस्य नेक कारणम् ।' ( आप्त-परीक्षा कारिका ९) अर्थात सामग्री (जितने कार्य के जनक होते हैं उन सबको सामग्री कहा जाता है) कार्य की उत्पादक है, एक ही कारण कार्य का उत्पादक नहीं है। 'कारण-सामग्गीदो उप्पज्जमाणस्स कज्जस्स वियलकारणादो समुप्पत्तिविरोहा।' अर्थ-कारणसामग्री से उत्पन्न होनेवाले कार्य की विकल कारणों से उत्पत्ति का विरोध है । 'कार्यस्थानेकोपकरणसाध्यत्वात् ।' ( रा. वा. ५॥१७॥३१) अर्थ-कार्य की उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है । अनेक कारणों से कार्य सिद्ध होता है । इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति आदि के बन्ध में राग भी कारण है और सम्यग्दर्शन आदि भी कारण है। जैसे मछली की गति में जल भी कारण है और धर्म-द्रव्य भी कारण है, रागादि की उत्पत्ति में अशुद्ध जीव भी कारण है और कर्मोदय भी कारण है। अनेक कारणों में से कहीं पर किसी एक कारण की मुख्यता से कथन होता है और कहीं पर अन्य कारण की मुख्यता से कथन होता है, किन्तु इस मुख्यता का यह अभिप्राय है कि अन्य कारण गौण हैं अथवा उनकी विवक्षा नहीं है, उन अन्य कारणों का प्रभाव इष्ट नहीं होता है । 'अपितानर्पितसिद्धः ॥५॥३२॥' (त. सू.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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