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________________ १४७८ ] (६) रत्नत्रय से बन्ध शंका-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तो संवर, निर्जरा व मोक्षके कारण हैं और राग-द्वेष आलय तथा बन्ध के कारण हैं । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र राग-द्वेष रूप नहीं हैं, अतः ये बन्ध के कारण नहीं हो सकते । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा भी है [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : योगात्प्रदेशबन्धः, स्थितिबन्धो भवति तु कषायात् । दर्शनबोधचरित्रं, न योगरूपं कषायरूपं च ॥ २१५|| ( पु० सि० उ० ) अर्थात् - योग से प्रदेश -बन्ध तथा कषाय से स्थिति-बन्ध होता है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र न योगरूप हैं और न कषाय रूप हैं इसलिये ये बन्ध के कारण नहीं हैं । समाधान- इन्हीं अमृतचन्द्र आचार्य ने 'तत्त्वार्थसार' के आलव अधिकार श्लोक नं० ४३ में सम्यग्दर्शन व संयम से देवायु का बन्ध और श्लोक संख्या ४९ से ५२ में सम्यग्दर्शन, ज्ञान तथा तप आदि से तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कथन किया है । वे श्लोक इस प्रकार हैं Jain Education International सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ ४३ ॥ विशुद्धि दर्शनस्योच्चैस्तपस्त्यागौ च शक्तितः । मार्गप्रभावना चैव संपत्तिविनयस्य च ॥ ४९ ॥ शीलव्रतानतीचारो नित्यं संवेगशीलता । ज्ञानोपयुक्तताभीक्ष्णं, समाधिश्च तपस्विनः ॥ ५० ॥ वैयावृत्त्यमनिर्हाणिः षड्विधाऽवश्यकस्य च । भक्तिः प्रवचनाचार्य - जिनप्रवचनेषु च ॥५१॥ वात्सल्यं च प्रवचने षोडशैते यथोदिताः । नाम्नस्तीर्थ करत्वस्य भवन्त्यात्रवहेतवः ॥ ५२ ॥ एक ही प्राचार्य 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' में तो यह कथन करें कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से बन्ध नहीं होता है और 'तत्त्वार्थसार' में यह कथन करें कि सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र से तीर्थंकरप्रकृति श्रादि का बन्ध होता है । एक ही श्राचार्य द्वारा इसप्रकार परस्परविरुद्ध कथन होने में क्या कारण है यह बात विशेष विचारणीय है । इसके लिये सर्व प्रथम 'कारण' की व्याख्या जानना अत्यन्त श्रावश्यक है । जिसका कार्य के साथ श्रन्वय व व्यतिरेक हो, वह कारण होता है। कहा भी है'यद्भावाभावाभ्यां यस्योत्पत्त्यनुत्पत्ती तत् तत्कारणमिति लोकेऽपि सुप्रसिद्धत्वात् । ' For Private & Personal Use Only ( प्रमेय रत्नमाला १।१३ ) www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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