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________________ १४५४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : उवसातो कम्हि उवसामेदि ? चदुसु वि गदीसु उवसामेदि । चदुसु वि गदोसु उवसामेंतो पंचिदिएसु उवसामेदि, जो एइंदिय विलिदियेसु । पंचिदिएसु उवसातो सणीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु । सग्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु । सणीसु उवसातो गम्भोववकंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवक्कंतिएसु उवसातो पज्जत्तएसु उवसामेदि णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु उवसातो संखेज्जवस्साउगेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि । धवल पु०६ पृ० २३८ अर्थ-दर्शनमोहनीयकर्म को उपशमाता हा यह जीव कहाँ उपशमाता है ? चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता हा पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में नहीं उपशमाता है। पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुमा संज्ञियों में उपशमाता है, असं शियों में नहीं उपशमाता। संज्ञियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों में (गर्भजजीवों में) उपशमाता है, सम्मूच्छिमों में नहीं । गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है, अपर्याप्तकों में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुमा संख्यातवर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यातवर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है । अर्थात् उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करता है। ___ गणधर ने सम्यक्त्वोत्पत्ति का यह सब कथन पर्यायदृष्टि से किया है। 'पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि' यदि सिद्धांत होता तो गणधर महाराज पर्यायदृष्टि से क्यों कथन करते ? श्री गुणधराचार्य कषायपाहुड़ में कहते हैं सम्वणिरय भवरणेसु दीवसमूहे गृह जोदिस विमारणे। अभिजोग्ग-अणभिजोग्गे उवसामो होइ बोद्धव्यो । सागारे पटुवगो गिढवगो मज्झिमो य भजियव्यो। जोगे अण्णदरम्हि य जहग्णगो तेउलेस्साए ॥ (क.पा. ४३० व ४३२) सर्व नरकों में, सर्वप्रकार के भवनवासी देवों में, सर्वद्वीप और समुद्रों में, सर्वव्यन्तरदेवों में, समस्त ज्योतिष्कदेवों में, विमानवासीदेवों में, अभियोग्यजाति के तथा अनभियोग्यजाति के देवों में दर्शनमोहनीयकर्म का उपशम होता है। साकारोपयोग में वर्तमानजीव ही दर्शनमोहनीयकर्म के उपशमन का प्रस्थापक होता है, किन्तु निष्ठापक और मध्यमअवस्थावर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एकयोग में वर्तमान और तेजोलेश्या के जघन्य अंग को प्राप्त जीव दर्शनमोह का उपशामक होता है। अर्थात् उपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। त्पत्ति का यह सब कथन भी पर्यायदृष्टि से किया गया है। इससे स्पष्ट है कि सापेक्ष पर्यायदष्टि से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। द्रव्यदृष्टि सो सामान्यदृष्टि, क्योंकि 'सामान्यं द्रव्यं चैकार्थवाचकाः।' तत्त्वार्थसार किन्तु सामान्य की अपेक्षा विशेष बलवान होता है । कहा भी है'सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ।' सामान्य शास्त्र ते विशेष बलवान है, क्योंकि विशेष ही ते नीकै निर्णय हो है। इसीलिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय के मोक्षमार्गप्ररूपक दूसरे अधिकार में जीवतत्त्व का पर्यायों की अपेक्षा विशेष कथन किया है। गाथा १०९ में संसारी व मोक्षपर्याय की अपेक्षा से जीवतत्त्व का कथन है । गाथा ११० से १२२ तक इन्द्रिय, गति. भव्य, अभव्य कर्ता, भोक्ता आदि पर्यायों की अपेक्षा संसारीजीव का विशेष कथन है। जीवपदार्थ के कथन का उपसंहार करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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