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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४५३ श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी प्रवचनसार गाथा १० की टीका में 'ऊर्वता सामान्यलक्षणे द्रव्ये' शब्दों द्वारा द्रव्य का लक्षण ऊर्ध्वतासामान्य बतलाया है। 'परापरविवर्तव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृविय स्थासादिषु ।' परीक्षामुख पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्य को ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं। जैसे स्थास, कोश, कुशूल घटादि पर्यायों में मिट्टी रहती है। यदि द्रव्यदृष्टि के विषयभूत प्रात्मद्रव्य के साथ शुद्ध विशेषण लगा दिया जाये तो वह अशुद्धपर्यायों में नहीं रह सकेगा, किन्तु संसारी अशुद्धपर्याय में प्रात्मद्रव्य रहता है। अतः शुद्धाशुद्ध विशेषणों से रहित सामान्य प्रात्मा द्रव्यदृष्टि का विषय है। 'सामान्यनयेन हारत्रग्दामसूत्रवव्यापि ।' ॥१६॥ प्रवचनसार परिशिष्ट सामान्यदृष्टि अर्थात् द्रव्यदृष्टि से प्रात्मा सर्वपर्यायों में व्याप्त होकर रहता है जैसे मोती की माला का डोरा माला के काले, पीले, शुक्ल वर्णवाले सब दानों में व्याप्त होकर रहता है। यह सामान्य प्रात्मा जब शुद्ध पर्याय को व्याप्त करके रहता है तब शुद्ध पर्याय से तन्मय होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य कहलाता है। जब अशुद्धपर्याय को व्याप्त करके रहता है तब अशुद्धपर्याय से तन्मय होने के कारण अशुद्धआत्मद्रव्य कहलाता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में कहा भी है परिणमदि जेण दध्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्त। तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुख्यव्वो ॥६॥ जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धण तदा सुद्धो हदि हि परिणामसम्भावो ॥९॥ द्रव्य जिसकाल में जिसपर्याय से परिणमन करता है अर्थात् जिसपर्याय को व्याप्त करता है उसकाल में वह द्रव्य उसरूप है ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है। इसलिये धर्मपर्याय को प्राप्त आत्मा को धर्मात्मा जानना चाहिये । जीव जब शुभपर्याय से परिणमन करता है अर्थात् शुभपर्याय को प्राप्त करता है तब वह जीव स्वयं शुभ हो जाता है। वही जीव जब अशुभपर्याय से परिणमन करता है अर्थात् अशुभपर्याय को प्राप्त करता है तब वह जीव स्वयं अशुभ हो जाता है। जब वही जीव शुद्धभाव से परिणमन करता है अर्थात् शुद्धपर्याय को व्याप्त करके रहता है तब वह जीव स्वयं शद्ध हो जाता है, क्योंकि जीव परिणमन स्वभाववाला है। इन तीनों अवस्थानों में रहनेवाला जो सामान्य प्रात्मद्रव्य है वह द्रव्यदृष्टि का विषय है।' तातै द्रव्यदृष्टि करि एक दशा है, पर्यायदृष्टि करि अनेक अवस्था हो है, ऐसा मानना योग्य है। सो शद्ध, अशुद्ध अवस्था पर्याय है। इस पर्याय अपेक्षा ( संसारी व सिद्ध में ) समानता मानिये सो यह मिथ्यादृष्टि है। तातै आपकौं द्रव्यपर्यायरूप अवलोकना। द्रव्यकरि सामान्य स्वरूप अवलोकना, पर्याय करि विशेष अवधारना । ऐसे ही चितवन किये सम्यग्दृष्टि हो है। जात सांचा अवलोके बिना सम्यग्दृष्टि कैसे नाम पावे ।' भी गौतमगणधर प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करनेवाले जीव की योग्यता का कथन निम्नप्रकार करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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