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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४५१ श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है . एते परस्परापेक्षाः सम्यग्ज्ञानस्य हेतवः । निरपेक्षाः पुनः सन्तो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः ॥५१॥ त. सा. प्रथमाधिकार .. ये नय यदि परस्पर सापेक्ष रहते हैं अर्थात् अपने विपक्ष की अपेक्षा रखते हैं तो सम्यग्ज्ञान के हेतु होते हैं और यदि निरपेक्ष रहते हैं अर्थात् अपने विपक्ष की अपेक्षा नहीं रखते हैं तो मिथ्याज्ञान के हेतु होते हैं। यदि द्रव्यदृष्टि पर्यायदृष्टि सापेक्ष है और पर्यायदृष्टि द्रव्यदृष्टि सापेक्ष है तो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की कारण है। यदि द्रव्यदृष्टि पर्यायदृष्टि निरपेक्ष है और पर्यायदृष्टि द्रव्यदृष्टि निरपेक्ष है तो मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञान के कारण हैं । जिसप्रकार 'न देवाः' इस सूत्र के आधार पर यदि कोई देव पर्याय का निषेध करने लगे तो वह विद्वान् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने पूर्वापर प्रकरण अनुसार सूत्र का अर्थ नहीं समझा । इसी प्रकार 'मैं सुखी दुखी मैं रंक राव' छहढ़ाला के इस वाक्य के आधार पर जनसन्देश के सम्पादक ने 'पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि' ऐसा सिद्धांत बतलाने का प्रयत्न किया है सो यह उसकी भूल है, क्योंकि उन्होंने पूर्वापर प्रकरण पर दृष्टि नहीं दी। प्रकरण इसप्रकार है चेतन को है उपयोग रूप, विनमूरति चिनमूरति अनूप । पुदगल नभ धर्म अधर्म काल, इनतें न्यारी है जीव चाल । ताको न जान विपरीत मान, करि कर देह में निज पिछान । मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव, मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ।। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन । तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान ।। जो कोई जीव के लक्षण उपयोग को स्वीकार नहीं करता, किन्तु शरीर को ही प्रापा मानता है, शरीर की उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति और शरीर के नाश से अपना नाश मानता है। शरीर के सुख में अपने आप को सुखी और शरीर के दुःख में अपने आपको दुःखी मानता है, उसको यहाँ पर मिथ्यादृष्टि कहा है, जिसको अपने ज्ञान निधि की खबर नहीं है, बाह्य निधि के कारण अपने आपको रंक व राव मानता है उसको यहाँ पर मिथ्यादृष्टि कहा है। छहढ़ाला में पर्यायदृष्टि को मिथ्यादृष्टि नहीं कहा है बल्कि पर्यायदृष्टि का उपदेश दिया गया है और पर्यायष्टि से मुक्ति बतलाई गई है । वह कथन इसप्रकार है 'यह मानुष परजाय सुकुल सुनिवो जिनवानी। इह विधि गये न मिलै सुमणि ज्यों उदधि समानी ॥' 'बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर पातम हूजे । परमातम को ध्याय निरंतर जो नित आनन्द पूजै ॥' वजनाभि चक्रवर्ती पर्यायदृष्टि से विचार करते हैं _ 'मैं चक्री पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे । तो भी तनिक भये नहीं पूरण भोग मनोरथ मेरे ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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