SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 586
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४५० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इस कलश में श्री अमृतचन्द्राचार्य की वर्तमान अशद्धपर्याय पर दृष्टि रही है, जिसकी शुद्धि के लिये टीका रची गई है। यही मोक्षमार्ग है। शंका-क्या पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि है ? समाधान-तत्त्वार्थसूत्र में श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण निम्नप्रकार कहा है 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥' जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। यहाँ पर 'पर्यायदृष्टि मिथ्याष्टि' के सिद्धांत को माननेवाला कहता है कि 'जीव और अजीव इन दो द्रव्यों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इसप्रकार सूत्र की रचना होनी चाहिये थी, क्योंकि प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तो पर्यायें हैं । इसपर श्री अकलंकदेव निम्न उत्तर देते हैं 'अनेकान्ताच्च । द्रव्याथिकपर्यायाथिकयोर्गुणप्रधानभावेन अर्पणानर्पणभेदात् जीवाजीक्योरास्त्रवादीनां स्यादन्तर्भावः स्यादनन्तर्भावः । पर्यायाथिकगुणभावे द्रव्याथिकप्राधान्यात् आस्रवाविप्रतिनियतपर्यायानर्पणात अनादिपारिणामिकचैतन्याचैतन्यादि द्रव्यापिणाद आत्रवादीनां स्याज्जीवेऽजीवे वान्तर्भावः । तथा द्रव्याथिकगुणभाले पर्यायाथिकप्राधान्याव आत्रवादिप्रतिनियतपर्यायार्थपणाद अनादिपारिणामिकचैतन्याचैतन्याविद्रव्यार्थाऽनर्पणाद आत्रवादीनां जीवाजीवयोः स्यादन्तर्भावः । तदपेक्षया स्यादुपदेशोऽर्थवान् ।' त० रा० वा. वस्तुतः जीव, अजीव और प्रास्रव आदि में परस्पर भेद भी है और अभेद भी है ऐसा अनेकान्त है, अतः अनेकान्तदृष्टि से विचार करना चाहिये। पर्यायदृष्टि गौरण होने पर और द्रव्याथिकदृष्टि की प्रधानता रहने पर अनादि पारिणामिक जीव और अजीवद्रव्य की मुख्यता होने से प्रास्रवादि पर्यायों की विवक्षा न होने पर उन प्रास्रवादि पर्यायों का जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है, अतः जीव और अजीव इन दो पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। किन्तु जिससमय उन प्रास्रवादि पर्यायों को पृथक-पृथक् ग्रहण करनेवाली पर्यायाथिकदृष्टि की मुख्यता होती है तथा द्रव्यदृष्टि गौण होती है तब आस्रव आदि पर्यायों का जीव और अजीव में अन्तर्भाव नहीं होता। अतः पर्यायदृष्टि से इन प्रास्रव आदि पर्याय का उपदेश सार्थक है निरर्थक नहीं है । अर्थात् आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन पर्यायों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है, यह उपदेश पर्यायष्टि से यथार्थ है। एकान्त मिथ्यामतों का समुह अनेकान्त नहीं है, क्योंकि उनके मतों में नयों में परस्पर सापेक्षता नहीं है । कहा भी है ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुग्णया होति । सयल-ववहार-सिद्धी सुणयादो होदि णियमेण ॥२६६॥ स्वा. का. अ. संस्कृत टीका-'सापेक्षाः स्वविपक्षापेक्षासहिताः । ये नय सापेक्ष हों अर्थात् अपने विपक्ष की अपेक्षा करते हैं तो सुनय होते हैं । यदि नय निरपेक्ष हों अर्थात् विपक्ष की अपेक्षा से रहित हों तो दुर्नय होते हैं। द्रव्यदृष्टि यदि पर्यायदृष्टि से सापेक्ष है तो सुदृष्टि है। यदि द्रव्यदृष्टि पर्यायदृष्टि से निरपेक्ष है तो कुदृष्टि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy