SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४३७ भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायध्वं । असुहं च अट्टरद्द सुहधम्म जिणवरिंदेहिं ॥७६॥ भावपाहुड़ अर्थ- शुभ, अशुभ व शुद्ध ऐसे तीनप्रकार के भाव जानने चाहिए। आर्त और रौद्रध्यान अशुभ है और धर्मध्यान शुभभाव है । ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। 'सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः' प्रवचनसार पृ० ३१५ अर्थ-सर्वपरित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतरागचारित्र और शुद्धोपयोग में एकार्थवाची हैं। आजकल परमोपेक्षा संयम नहीं है, इसलिए शुद्धोपयोग भी नहीं है। शुद्धोपयोग के बिना सम्यग्दर्शन होता है, क्योंकि मिथ्यात्वगुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है । यदि शुद्धोपयोग पूर्वक ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति मानी जावेगी तो मिथ्यात्वगुणस्थान में भी शुद्धोपयोग का प्रसंग पा जावेगा, जिससे आगम से विरोध आ जायगा। -जं. ग. 24-10-66/VI/ पं. शांतिकुमार वैयावृत्ति एवं साधु-समाधि भावना शंका-यावृत्य एवं साधु-समाधि में क्या अन्तर है। समाधान-तीर्थंकरप्रकृति के बंध के लिये सोलह भावनाओं का कथन मोक्षशास्त्र अध्याय ६ सूत्र २४ में है तथा धवल पुस्तक ८ सूत्र ४१ पृ. ७९ पर है। इन सोलह भावनाओं में साधु-समाधि और वैयावृत्यकरण ये दो भावनाएँ भी हैं। सर्वार्थसिद्धि टीका में साधु-समाधि का अर्थ इसप्रकार कहा है -- 'जैसे भण्डार में आग लग जाने पर बहत उपकारी होने से प्राग को शांत किया जाता है उसीप्रकार अनेक प्रकार के व्रत और शीलों से समृद्ध मुनि के तप करते हुए किसी कारण से विघ्न उत्पन्न होने पर संधारण करना शान्त करना साधु-समाधि है।' धवल पुस्तक ८ में इस भावना का नाम 'साधु-समाधि संधारणता' दिया है। इसका स्वरूप पृ० ८८ पर इसप्रकार कहा गया है'दर्शन, ज्ञान व चारित्र में सम्यक् अवस्थान का नाम समाधि है। सम्यक प्रकार से धारण या साधन का नाम संधारण है। समाधि का सधारण समाधि-संधारण है और उसके भाव का नाम समाधि संधारणता है। किसी भी कारण से गिरती हई समाधि को देखकर सम्यग्दृष्टि प्रवचनवत्सल प्रवचनप्रभावक विनयसम्पन्न शीलव्रतातिचारवजितऔर अरहंतादिकों में भक्तिमान होकर चूकि उसे धारण करता है इसलिए वह समाधि संधारण है।' वैयावृत्य का लक्षण सर्वार्थसिद्धि में इसप्रकार है-'गुणी पुरुष के दुःख में प्रा पड़ने पर निर्दोष उस दुख का दूर करना वैयावृत्य है ।' धवल पुस्तक ८ में इस भावना का नाम 'साधुओं की वैयावृत्ययोग युक्तता' दिया है और पृ० ८८ पर इसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-'व्यावृत्य अर्थात्-रोगादि से व्याकुल साधु के विषय में जो किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है। जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, प्ररहंतभक्ति, बहुश्रु तभक्ति, एवं प्रवचनवत्सलत्वादि से जीव वैयावृत्य में लगता है वह वैयावृत्ययोग अर्थात् दर्शनविशुद्धतादि गुण हैं। उनसे संयुक्त होने का नाम वैयावृत्ययोगयुक्तता है।' इसप्रकार धवलाकार के मत से गिरती हुई समाधि को देखकर स्वयं उसको धारण करता है' वह साधु समाधि है । 'रोगादि से व्याकुल साधु का दुख दूर करना' वैयावृत्य है । अतः स्व और पर का भेद है। -जं. ग. 16-5-63/IX/ प्रो. म. ला.जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy