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________________ १४३६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ - केवल वर्तमानपर्याय को ही अर्थ क्यों कहा जाता है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जो जाना जाता है उसको अर्थ कहते हैं, इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमानपर्यायों में ही अपना पाया जाता है । जितने भी सत्रूप अर्थ हैं उनका कोई न कोई ज्ञाता अवश्य है अन्यथा उसकी अर्थ संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि जो जाना जाता है वह अर्थ है । इसलिये यह कहना कि 'सत्यार्थ' प्रज्ञात है उचित नहीं है । यदि सत्यार्थं किसी व्यक्ति विशेष को अज्ञात है तो ज्ञाता पुरुषों के उपदेश द्वारा उस अज्ञात को भी वह सत्यार्थ ज्ञात हो सकता है। इसलिये सत्यार्थ सर्वथा अज्ञात नहीं हो सकता । - ज. ग. 7-11-68 / XIV-XV / रोशनलाल मिथ्यादृष्टि मनुष्य-तियंच के अवधिज्ञान की संज्ञा विभंगावधि या कुश्रवधि है शंका- देशावधिज्ञान क्या सम्यग्दृष्टि मनुष्य तिर्यंचों के ही होता है या मिथ्यादृष्टि के भी हो सकता है ? समाधान – देशावधिज्ञान मनुष्य, तिर्यंच, देव व नारकी चारों गतियों में मिध्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के हो सकता है, किन्तु उसकी संज्ञा देशावधि न होकर विभंगावधि या कु-अवधि होती है । कहा भी है'विभंगणाणं सणि मिच्छाइट्टीणं वा सासणसम्म इट्टीणं वा ॥११७॥ पज्जत्ताणं अस्थि, अपज्जत्ताणं त् ॥ ११८ ॥ ' ( धवल पु. १ पृ. ३६२ ) अर्थ – विभंगावधिज्ञान संज्ञीमिध्यादृष्टिजीवों के तथा सासादनसम्यग्दृष्टिजीवों के होता है, किन्तु वह पर्याप्तकों के ही होता है अपर्याप्तकों के नहीं होता है । —जै. ग. 26-11-70/ VII / गम्भीरमल सोनी प्राजकल शुद्धोपयोग नहीं है शंका- कलिकाल में वीतरागचारित्र की असम्भवता किस अनुयोग की अपेक्षा से है। बिना शुद्धोपयोग के भी सम्यग्दर्शन हो सकता है या नहीं ? यदि होता है तो किस प्रकार - समाधान - श्राजकल पंचमकाल में भरतक्षेत्र में शुक्लध्यान का निषेध है, किन्तु धर्मध्यान का निषेध नहीं है । धर्मध्यान शुभभाव है। श्री कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सोवि अण्णाणी ॥७६॥ मो. पा. अर्थ - इस भरतक्षेत्र विषै दुःषमकाल जो पंचमकाल ता विषै साधु-मुनि के धर्मध्यान होय है, सो यह धर्मंध्यान आत्मस्वभाव के विषं स्थित हैं । तिस मुनि के होय है । यह न माने सो अज्ञानी है जाकू धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नाहीं है । Jain Education International अत्रेदानों निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्म्यध्यानं पुनः प्राहु श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तनाम् ॥८३॥ तवानुशासन अर्थ – यहाँ भरतक्षेत्र में इस पंचमकाल में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं परन्तु दोनों श्र ेणियों से पूर्ववर्ती होने वाले धर्मध्यान का निषेध नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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