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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] 'णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव । ' संस्कृत टीका- 'यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिवशेन तान्येव बीजानि भिन्नभिन्नफलं प्रयच्छन्ति ।' यद्यपि मिथ्यात्वनादि सातप्रकृतियों के क्षय होने पर क्षायिकसम्यग्दर्शन पूर्ण हो जाता है फिर भी वह अवगाढ व परमावगाढ संज्ञा को प्राप्त नहीं होता । पूर्णश्र ुतज्ञान होने पर उसी क्षायिकसम्यग्दर्शन की अवगाढ संज्ञा हो जाती है और केवलज्ञान होने पर परमावगाढ संज्ञा हो जाती है । दृष्टिः साङ्गाङ्गवाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा । कैवल्यालोकितायें रुचिरिह परमावादिगाढैतिरूढा ॥ [ १४२१ अर्थात् — अंग और अंगबाह्यसहित जैनशास्त्र ताको अवगाहि करि जो निपजी दृष्टि सो अवगाढदृष्टि है । यहु श्रवगाढ सम्यक्त्व जानना । बहुरि केवलज्ञान करि जो श्रवलोक्या पदार्थ विषं श्रद्धान सो इहां परमावगाढदृष्टि प्रसिद्ध है । यह परमावगाढ़ सम्यक्त्व जानना । क्या क्षायिक व अवगाढसम्यग्दर्शन अपूर्ण है और परमावगाढ सम्यग्दर्शन पूर्ण है ? क्या क्षायिकसम्यग्दर्शन, प्रवगाढ सम्यग्दर्शन और परमावगाढ सम्यग्दर्शन के अविभाग प्रतिच्छेदों में तरतमता है ? सम्यग्दर्शन में तरतमता उत्पन्न करनेवाले दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर क्षायिकसम्यग्दर्शन के अविभागप्रतिच्छेदों में तरतमता का अभाव हो जाता है । इसीप्रकार चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर क्षायिकचारित्र के अविभागप्रतिच्छेदों की तरतमता का प्रभाव हो जाता है । जिसप्रकार क्षायिकसम्यग्दर्शन, ज्ञान की अपेक्षा, अवगाढ व परमावगाढ संज्ञा को प्राप्त होते हैं, क्षायिकचारित्र भी प्रयोगी की अपेक्षा परमयथाख्यातचारित्र संज्ञा को प्राप्त हो जाता है । क्षायिकचारित्र और परमयथाख्यातचारित्र के प्रविभागप्रतिच्छेदों में हीनाधिकता नहीं है । तेरहवें स्थान के क्षायिकज्ञान ( केवलज्ञान ) और चौदहवेंगुणस्थान के केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में भी कोई अन्तर नहीं है । इसप्रकार तेरहवें और चौदहवेंगुरणस्थान के रत्नत्रय में कोई अन्तर नहीं है । जिसप्रकार वही का वही बीज किन्तु भूमि की विभिन्नता के वश से फल में विभिन्नता हो जाती है, उसीप्रकार वही का वही क्षायिकरत्नत्रयरूपी बीज सयोगकेवली और प्रयोगकेवलीरूप भूमि की विभिन्नता से फल की निष्पत्ति में विभिन्नता हो जाती है । उस फल की विभिन्नता के कारण ही उस क्षायिकरत्नत्रय की 'पूर्ण' आदि विभिन्न संज्ञा है । जो विद्वान अपेक्षाओं को न समझकर चौदहवेंगुणस्थान के रत्नत्रय को पूर्ण मानकर क्षायिकरत्नत्रय में तरतमता मानते हैं उनको, 'क्षायिक भावानां न हानिर्नापि वृद्धिरिति ।' अर्थात् 'क्षायिकभावों की हानि नहीं होती और वृद्धि भी नहीं होती' इन श्रार्षवाक्यों का भी श्रद्धान करना चाहिये । 1 यद्यपि क्षाकिरत्नत्रय क्षायिकरूप से सम्पूर्ण है तथापि वह मुक्ति को उत्पादन करने के लिये श्रायुकर्म की शेष स्थिति (काल) की अपेक्षा रखता है । Jain Education International कार्य की उत्पत्ति की अपेक्षा से चौदहवेंगुणस्थान के रत्नत्रय को सम्पूर्ण कहने में स्याद्वादियों को कोई बाधा नहीं है । श्री अकलंकदेव ने कहा भी है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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