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________________ १४२० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान संस्कृत-हिन्दी कोश में राहु को सूर्य व चन्द्रमा दोनों को ग्रस्त करने वाला लिखा है । हरिवंशपुराण पर्व ६ में भी सूर्य व चन्द्रमा दोनों के नीचे राहु का विमान बतलाया है। अरिष्ठमणिमूर्तीनि समान्यञ्जनपुञ्जकः। भान्ति राहु विमानानि चन्द्रार्काधः स्थितानि तु ॥१०॥ अर्थ-राहु के विमान अरिष्ट मणिमय हैं, अञ्जन की राशि के समान श्याम हैं तथा चन्द्रमा और सूर्य के विमानों के नीचे स्थित हैं। उपयुक्त दृष्टि से ही भक्तामर स्तोत्र के १७ १८वें दोनों श्लोकों में 'राहु' शब्द का प्रयोग किया गया है। -गे. ग. 3-9-70/VI/अनिलकुमार गुप्ता १ अपने योग्य सर्व गुणस्थानों के क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र व केवलज्ञान में समानता २. रत्नत्रय को पूर्णता ही मोक्ष को साक्षात् हेतु है शंका-'अयोगिकेवलिनः सम्पूर्णयथाख्यातचारित्रज्ञानदर्शनं सर्वसंसार-दुःखजालपरिष्वङ्गोच्छेदजननं साक्षान्मोक्षकारणमुपजायते।' ऐसा श्री पूज्यपादस्वामी व श्री अकलंकदेव का वाक्य है। इसमें 'सम्पूर्ण' विशेषण मात्र 'यथाख्यातचारित्र' के लिये है या 'यथाख्यातचारित्र-ज्ञान-दर्शन' इन तीनों के लिये है ? । समाधान-इस वाक्य में मोक्ष के कारण अर्थात् मोक्षमार्ग का प्रकरण है। सम्यग्दर्शनशानचारित्र इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है क्योंकि 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः,' ऐसा सूत्र है। इसलिए 'सम्पूर्ण' चारित्र-ज्ञान-दर्शन इन तीनों का अर्थात् रत्नत्रय का विशेषण है, मात्र चारित्र का विशेषरण नहीं है। श्री भास्करनन्दिआचार्य ने भी इस सूत्र की व्याख्या में 'सम्पूर्ण' को दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों के विशेषण रूप से लिखा है। 'ततः समुच्छिन्नसर्वात्मप्रदेश परिस्पन्दो निवृत्ताऽशेषयोगः समुच्छिन्नक्रिया निवृत्तिध्यानस्वभावो भवति । ततः सम्पूर्णक्षायिकदर्शनज्ञानचारित्रः कृतकृत्यो विराजते।' __इसलिये 'सम्पूर्ण' सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र तीनों का विशेषण है, क्योंकि ये तीनों ही मोक्ष के कारण ( मोक्षमार्ग ) हैं । 'सम्पूर्ण' को मात्र यथाख्यातचारित्र का विशेषण कहना भूल है। शंका-समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान १४ वें गुणस्थान में होता है। ८ जुलाई १९६५ के जनसंदेश में भी चौदहवेंगुणस्थान में रत्नत्रय की पूर्णता बतलाई है । क्या चौदहवें गुणस्थान से पूर्व का सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र अपूर्ण है ? क्या तेरहवें गुणस्थान के क्षायिकसम्यग्दर्शन, केवलज्ञान और क्षायिकचारित्र में कोई कमी रह जाती है ? क्या तेरहवें गुणस्थान के रत्नत्रय के अविभागप्रतिच्छेद की संख्या से चौदहवेंगुणस्थान के रत्नत्रय के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या अधिक है ? समाधान-एक ही बीज यदि जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट भूमि में बो दिया जाय तो उस बीज के फल में विभिन्नता हो जाती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रादि महान् ग्रन्थकारों ने भी इसी बात को कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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