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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३८९ अर्थ - पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धान का संग्रह करने के लिये दर्शन के पहले सम्यक् विशेषण दिया है । पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होने पर जो पदार्थों का श्रद्धान होता है वह सम्यक्दर्शन है । - जै. ग. 25-2-71 / IX / सुलतानसिंह जैन सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्त्व में कथंचित् प्रन्तर शंका- चारित्रपाहुड़ गाथा १८ में 'सम्मदंसण पस्सदि' अर्थात् सम्यग्दर्शन को देखनेवाला बतलाया है, सो कैसे ? वहाँ सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्व का अलग-अलग अभिप्राय लिया गया है जबकि ये दोनों पर्यायवाची हैं ? समाधान - चारित्रपाहुड़ की गाथा १८ निम्नप्रकार है सम्म सण पदि जाणदि णामेण दव्वपज्जाया । सम्मेण यद्दहदि य परिहरदि चरितजे दोसे ||१८|| इस गाथा में सम्यग्ष्टि के दर्शनोपयोग अर्थात् सामान्यावलोकन को सम्यग्दर्शन कहा है इसीलिये उसका कार्य पस्सदि बतलाया है। 'सम्मेण य सद्दहदि' अर्थात् मिध्यात्व के प्रभाव में होनेवाला सम्यक्त्वगुरण उसका कार्य श्रद्धान बतलाया है । इस गाथा में सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्व पर्यायवाची नहीं है । - ग. 26-10-67/ VII / र. ला. जैन 'सर्वगत चैत्र' का श्रभिप्राय शंका- स. सि. अ. ७ सूत्र २१ पृ. २७२ (सम्पा. पं. फू. च. सि. शा. ) में लिखा है कि 'जैसे राजकुल में चैत्र को उपचार से सर्वगत कहा जाता है; इसका क्या अभिप्राय है ? समाधान - स. सि. अ. ७ सूत्र २१ पृ० २७२ में 'चैत्र' से अभिप्राय बौद्धसाधु का है। उनके लिये राजमहल में कोई रोक टोक नहीं । तथापि संडास आदि ऐसे स्थान हैं जहां बौद्धसाधु नहीं जाते तथापि उपचार से उनको सर्वगत कहा गया है ।" - पत्राचार अगस्त, 77 / ज. ला. जैन, भीण्डर सल्लेखना / समाधिमरण शंका - सल्लेखना तथा समाधिमरण में केवल पर्याय भेद ही है या अर्थ भेद भी है । समाधान - सत् और लेखना इन दो शब्दों से सल्लेखना शब्द बना है । अर्थात् काय और कषाय को भले प्रकार कृश करना | समाधि का अर्थ त्याग है अर्थात् काय से ममत्वभाव व कषाय का त्याग करना समाधि है । समाधि का अर्थ कठिन समय में धैर्य धारण करना भी है, अर्थात् मरण समय में धैर्य धारण करके आर्तरौद्ररूप परिणाम न होने देना । इसप्रकार सल्लेखना और समाधिमरण का प्रायः एक ही भाव है । - ग. 20-3-67/ VII / जगन्नाथ १. विशेष के लिए श्लोक वार्तिक भाग ६ पृ. ६१०, प्रथम अनुच्छेद पढ़ना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only -सम्पादक www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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