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________________ १३८० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : पाप और कषाय में अन्तर शंका-पाप और कषाय में क्या अन्तर है ? समाधान-'पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् ।' जो प्रात्मा को शुभ से बचाता है वह 'पाप' ( सर्वार्थसिद्धि )। 'सुहदुक्खसुबहसस्सं कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स। संसारदूरमेरं तेण कसायो त्ति णं बैंति ॥२८२॥ (गो० जी०) अर्थ-सुख दुःख आदि अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करनेवाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र को जो कर्षण करती है उन्हें कषाय कहते हैं । इसप्रकार पाप और कषाय के लक्षण भेद से दोनों का अन्तर सहज ज्ञात हो जाता है। कषाय पाप है किन्तु 'पाप' मात्र कषाय नहीं है । कषाय के अतिरिक्त मिथ्यादर्शन आदि भी पाप हैं। -. सं. 28-8-58/V/ भागचंद जैन, बनारस पुण्य-पाप के भेद व परिभाषाएँ शंका-पापानुबन्धी पुण्य, पापानुबन्धी पाप, पुण्यानुबन्धी पुण्य व पाप किसे कहते हैं ? समाधान-पुण्य के उदय में अशुभ भावों द्वारा पाप का बन्ध करना पापानुबन्धीपुण्य है । पाप के उदय में अशुभ भावों के द्वारा पाप का बन्ध करना पापानुबन्धीपाप है। पुण्य के उदय में शुभभावों द्वारा पुण्यबन्ध करना पुण्यानुबन्धी पुण्य है। पाप के उदय में शुभ भावों द्वारा पुण्यबन्ध करना पुण्यानुबन्धी पाप है। पुण्य तथा पाप के उदय में समताभाव द्वारा बन्ध का अभाव करते हए निर्जरा करनी कार्यकारी है। ___ -जे. सं. 17-5-56/VI/ म... मुजफ्फरनगर पृथक्त्व =६५, ४७, २३, १५ प्रादि भी होते हैं शंका-तिर्यंचगति में पंचेन्द्रिय तियंचपर्याप्तकों के सम्यक्त्व प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के सत्त्व का उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीनपल्य ही क्यों कहा है ? ४७ पूर्वकोटि अधिक तीनपल्य क्यों नहीं कहा? जब कि पंचेन्द्रियतियंचपर्याप्तकों में एक जीव का उत्कृष्ट अवस्थान इतना पाया जाता है। समाधान-'पूर्वकोटि प्रथक्त्व' से यहाँ ४७ पूर्वकोटि ग्रहण करना चाहिये । 'पृथक्त्व' शब्द 'विपुल' अर्थात् 'बहुत' का वाची है अतः 'पृथक्त्व' शब्द से यथासंभव ९५, ४७, २३, १५ आदि संख्या ग्रहण की जा सकती हैं । 'पृथक्त्व' शब्द से ४७ संख्या ग्रहण कर लेने पर शंकाकार का प्रश्न समाप्त हो जाता है । (१० खं० पु० ७, पृ० १२२-१२३ सूत्र १५ व टीका, क० पा० पु० २ पृ० २६२) -*. सं. 24-7-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत प्रतिगणधर देव शंका-प्रतिगणधरदेव कौन हैं ? क्या आरातीय आचार्य ही प्रतिगणधरदेव हैं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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