SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३७९ समाधान-इस सूत्र में नित्य' शब्द 'पाभीक्ष्ण्य' अर्थ में प्रयोग हुआ है। इस सूत्र में नित्य शब्द का अर्थ कूटस्थ या अविचल नहीं ग्रहण करना चाहिये । कहा भी है - 'आभीक्ष्ण्यवचनान्नित्य प्रहसितवत् । यथा नित्यप्रहसितो देवदत्त इत्युच्यते योऽभीक्ष्णं प्रहसति, न च तस्य प्रहसनानिवृत्तिः, कारणे सति भावात् । तथा अशुभकर्मोदयनिमित्तवशात् लेश्यादयोऽनारतं प्रादुर्भवन्तीति आभीषण्य वचनो नित्यशब्दः प्रयुक्त ।' रा. वा. ३-३-४ अर्थात्-'पाभीक्ष्ण्य' अर्थ में नित्य शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे नित्य हँसनेवाला ( सदा हँसने वाला ) पुरुष । हास्य के कारणों के उपस्थित रहने पर बार-बार हँसने के कारण देवदत्त जिसप्रकार नित्य प्रहसित अर्थात सदा हँसनेवाला कहा जाता है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि देवदत्त का हँसना कभी बंद न होता हो या हँसने में हीन अधिकता न होती हो । कारण की उपस्थिति में सदा हँसने के कारण नित्य हँसनेवाला कहा जाता है, किन्तु कारणों के अभाव में उसका हँसना बन्द हो जाता है। उसी प्रकार जब तक अशुभ-लेश्या आदि के कारण अशुभ कर्मोदय आदि विद्यमान रहते हैं तब तक सदा अशुभ लेश्या आदि उत्पन्न होते रहते हैं, किन्तु कारणों के अभाव हो जाने पर उनकी भी निवृत्ति हो जाती है तथा उनकी निवृत्ति होने पर नरक निवास छोड़ देना पड़ता है। इसलिये इस सूत्र में नित्य शब्द पाभीक्ष्ण्य अर्थ का द्योतक है। -जें. ग. 7-11-68/XIV/रो. ला. जैन प्रकृतिबन्ध का लक्षण शंका-प्रकृतिबंध का लक्षण क्या है। समाधान–प्रकृति का अर्थ स्वभाव है । कहा भी है 'प्रकृतिः स्वभावः निम्बस्य का प्रकृति ? तिक्तता। गुडस्य का प्रकृतिः ? मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः ? अर्थानवगमः। दर्शनावरणस्य का प्रकृतिः। अर्थानालोकनम् । वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःखसंवेदनम् । वर्शनमोहस्य तत्वार्थाश्रद्धानम्। चारित्रमोहस्यासंयमः। आयुषो भवधारणम् । नाम्नो नारकादिनामकरणम् । गोबस्योच्च निःस्थानसंशब्दनम् । अन्तरायस्य दानादिविघ्नकरणम् । तदेवंलक्षणं कार्य प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः।' सर्वार्थ सिद्धि ३ अर्थ--'प्रकृति' का अर्थ स्वभाव है । जिसप्रकार नीम की क्या प्रकृति है ? कडुवापन । गुड़की क्या प्रकृति है ? मीठापन । उसीप्रकार ज्ञानावरणकर्म की क्या प्रकृति है ? अर्थ का ज्ञान न होना । दर्शनावरणकर्म की क्या प्रकृति है ? अर्थ का अवलोकन नहीं होना । सुख-दुःख का संवेदन कराना साता और असातावेदनीय की प्रकृति है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान न होने देना दर्शनमोह की प्रकृति है। असंयमभाव चारित्रमोह की प्रकृति है। भवधारण प्रायकर्म की प्रकृति है। नारकादि नामकरण नामकर्म की प्रकृति है। उच्च और नीच स्थान का संशब्दन गोत्रकर्म की प्रकृति है तथा दानादि में विघ्न करना अंतरायकर्म की प्रकृति है। इसप्रकार का कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है वह प्रकृति है । जिससमय तक बंध नहीं होता है उससमय तक उन कार्मणवर्गणानों में उपर्युक्त कार्य करने का स्वभाव उत्पन्न नहीं होता है । कार्मणवर्गणाओं में उपर्युक्त कार्य करने का स्वभाव उत्पन्न हो जाना प्रकृतिबंध है। -जं. ग. 14-1-71/VII/ रो. ला. मित्तल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy