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________________ १३७६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : उत्कर्षण, अपकर्षरण, संक्रमण, उदीरणा, उपशम या क्षय आदि कुछ नहीं हो सकता अतः इस प्रावलीकाल को बंधावली या प्रचलावली कहा गया है । सत्ता, व्युच्छित्ति का नाम 'क्षय' है । जिसकर्म की सत्ता ( सत्त्व ) नहीं है उसकर्म का उदय भी नहीं हो सकता । अतः कर्मप्रकृति का क्षय हो जाने पर उसप्रकृति का उदय क्षय हो ही जाता है । किन्हीं कर्म प्रकृतियों की उदय - व्युच्छित्ति और सत्त्व-व्युच्छित्ति एकसाथ होती है और किन्हीं कर्म प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति पूर्व में हो जाती है और उसके पश्चात् सत्त्वव्युच्छित्ति होती है । कर्मप्रकृतियों का श्रात्मा से सर्वथा दूर हो जाना 'क्षय' है। इसका अभिप्राय यह है कि जिन कर्मप्रकृतियों का सत्त्व नष्ट हो जाने पर पुनः उत्पत्ति नहीं होती उस सत्त्व के नाश का नाम 'क्षय' है । अनन्तानुबन्धीकषाय का सत्त्व नष्ट हो जाने पर पुनः उत्पत्ति पाई जाती है । इसीलिये अनन्तानुबन्धीकषाय के सत्त्व नाम का नाम 'क्षय' न देकर 'विसंयोजना' कहा है। कहा भी है ' का विसंयोजणा ? अनंताणुबंधिच उक्करखंधाणं परसरुवेण परिणमणं विसंयोजणा; ण पदोदयकम्मक्खarry विहिवारो, तेस परसरुवेण परिणदाणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो ।' ज. ध. पु. २ पृ. २१९ अर्थ-विसंयोजन किसे कहते हैं ? अनन्तानुबन्धीचतुष्क के स्कन्धों के परप्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं । विसंयोजना का इसप्रकार लक्षण करने पर जिन कर्मों की परप्रकृति के उदयरूप से क्षपरणा होती है उनके साथ व्यभिचार प्रजायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी को छोड़कर पररूप से परिणत हुए अन्य कर्मों की पुनः उत्पत्ति नहीं पाई जाती । 'खविदाणमताणुबंधीणं व पुणरुप्पत्ती एदासि' पयडीणमणुभागस्स किष्ण जायदे ? ण, अनंताणुबंधीणं व संजणादीर्ण विसंजयोणाभावेण पुणरुष्पत्तीए विरोहादो। ण खविदाणं पुणरुप्पत्ती, णिआणं पि पुणो संसारितपसंगादो । ण च एवं णिरासवाणं संसारूप्पत्तिविरोहादो ।' ( ज. ध. पु. ५ पृ. २०७ ) अर्थ —– जैसे अनन्तानुबन्धी की क्षपणा हो जाने पर उसकी पुनः उत्पत्ति हो जाती है वैसे ही अन्यप्रकृतियों के अनुभाग की पुनः उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? अन्यप्रकृतियों की क्षपणा के पश्चात् पुनः उत्पत्ति नहीं होती । क्योंकि अनन्तानुबन्धीकषायों की तरह संज्वलन आदि की विसंयोजना का अभाव होकर उनकी पुनः उत्पत्ति होने में विरोध है । यदि यह कहा जावे कि नष्ट होने पर भी उनकी पुनः उत्पत्ति हो जाय तो क्या हानि है ? किन्तु ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि क्षय को प्राप्त हुई प्रकृतियों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती, यदि होने लगे तो मुक्त हुए जीवों का पुनः संसारी होने का प्रसंग उपस्थित होगा, किन्तु मुक्त जीव पुनः संसारी नहीं होते, क्योंकि जिनके कर्मों का आस्रव नहीं होता उनके संसार की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । अर्थात् जिन कर्मों का क्षय हो चुका है उनका पुनः आस्रव नहीं होता । जब सर्वघातीस्पर्धकों का अनुभाग अनन्तगुणा क्षीरणहोकर देशघातीरूप से उदय में आता है और सर्वघातीरूप उदय का अभाव है । इसप्रकार उन सर्वघाती स्पर्धकों की उदयभावी क्षय संज्ञा है । कहा भी है 'सव्वघादिफद्दयाणि अनंतगुणहीणाणि होवूण देसघादिफद्दयत्ततेण परिणमिय उदयभाजं गच्छति, ते सिमणंतगुणहीणसं खओ णाम ।' [ धवल पु. ७ पृ. ९२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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