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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३७५ सातावेदनीय का बंध प्रारम्भ हो जावेगा। सातावेदनीयकर्म का बंधकाल क्षय हो जाने पर असाता का बंध होने लगेगा। छठेगुणस्थानतक साता या असाता कर्मप्रकृति का एक अन्तर्मुहूर्तकाल से अधिक कालतक बंध नहीं हो सकता है। -जें.ग. 20-4-72 |IX/ यत्रपाल 'कुशील' का अभिप्राय शंका-तत्त्वार्थसूत्र में निम्रन्थमुनि के पुलाक आदि पाँच भेद बतलाये हैं। उनमें से एक भेद कुशील भी है। यहां पर 'शील' शब्द का क्या अर्थ है ? समाधान-शील का अर्थ प्रात्मा का वीतरागस्वभाव है ( अष्टपाहुड पृ० ६०८ )। दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्मराग रहता है वहाँ तक निर्ग्रन्थमुनि की कुशील संज्ञा है। दसवेंगुणस्थान के प्रागे चारित्रमोहनीय कर्मोदय के प्रभाव के कारण जीव पूर्ण वीतराग हो जाता है अर्थात् अन्तरंग व बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित हो जाता है, अतः उसकी निर्ग्रन्थ ( वीतरागछमस्थ ) संज्ञा हो जाती है। -जें. ग. 16-7-70/ रो ला मि. क्षपणा व विसंयोजना में अन्तर शंका-विसंयोजना और क्षपणा क्या पर्यायवाची शब्द हैं ? यदि हैं तो किस ग्रन्थ में कहाँ पर लिखा है ? समाधान-विसंयोजना और क्षपणा पर्यायवाची शब्द नहीं हैं । जिस कर्म की क्षपणा हो जाती है उसकी पुनः सत्ता या बंध नहीं हो सकता, किन्तु जिसकी विसंयोजना होती है उसकी पुनः सत्ता व बंध सम्भव है। विसंयोजना मात्र अनन्तानुबंधीकषाय की होती है अन्यप्रकृतियों की विसंयोजना नहीं होती। ज.ध. पु. पृ. २१९ पर कहा भी है-'अनन्तानुबंधी चतुष्क के स्कन्धों को परप्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं । विसंयोजना का इसप्रकार लक्षण करने पर निजकर्मों की परप्रकृति के उदयरूप से क्षपणा होती है, उनके साथ व्यभिचार आ जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबंधी को छोड़कर पररूप से परिणत हए अन्य कर्मों की पुनः उत्पत्ति नहीं पाई जाती । अतः विसंयोजना का लक्षण अन्यकर्मों की क्षपणा में घटित न होने से अतिव्याप्ति दोष नहीं पाता। -णे सं. 25-12-58/V/ ब्र. रावमल १. क्षय, विसंयोजना एवं उदयाभावी का स्वरूप २. 'क्षय' को प्राप्त कर्म का पुनः प्रास्त्रव नहीं होता। शंका-कर्मों का क्षय या प्रकृतियों का क्षय कहा जाता है। उसका यही तात्पर्य है कि उन कर्म या प्रकृतियों का उदय, बंध व सत्व से अभाव होता है ? या उदय के अभाव अर्थात् अनुदय को क्षय कहा जाता है ? यदि उदय के अभाव को क्षय कहते हैं तब उदयाभावी क्षय का क्या अर्थ है ? क्षय का लक्षण स. सि. पृ. १४९ पर २१ की टीका में दिया है-'क्षय आत्यन्तिकी निवृत्तिः', अर्थात् कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है। क्षय हो जाने पर क्या किसी फर्म का दुबारा आस्रव हो सकता है। समाधान-जिनकर्मों का क्षय होता है उन कर्मोंका अर्थात् कर्म प्रकृतियों का कम से कम एक प्रावली पूर्व बंध-व्युच्छित्ति अर्थात् संवर हो जाता है, क्योंकि कर्मबंध के पश्चात् एकावली कालतक उस कर्म का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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