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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३५३ (१) संवर और निर्जरा का कारण, विशुद्ध-ज्ञान दर्शन स्वभाव निज आत्मा है, उसके स्वरूप का सम्यकश्रद्धान, ज्ञान तथा प्राचरणरूप निश्चयरत्नत्रय है, तथा उस निश्चयरत्नत्रय का साधक व्यवहाररत्नत्रय है। (वृ० द्रव्यसंग्रह दूसरे अधिकार के प्रारम्भ में छहद्रव्यों की चूलिकारूप विस्तार व्याख्यान ) (२) व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व साधा जाता है । इसप्रकार निश्चय व व्यवहार में साध्य-साधकभाव है। (वृ० द्रव्यसंग्रह गाथा ४१ टीका ) (३) निश्चयचारित्र को साधनेवाला व्यवहारचारित्र का व्याख्यान (वृ. द्रव्यसंग्रह गाथा ४५ को टीका)। (४) व्यवहारचारित्र से साध्य जो निश्चयचारित्र है उसका निरूपण करते हैं। (वृ० द्रव्यसंग्रह गाथा ४६ की उत्थानिका) (५) निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चय मोक्षकारण निश्चयमोक्षमार्ग और इसीतरह व्यवहाररत्नत्रयरूप व्यवहारमोक्षहेतु व्यवहारमोक्षमार्ग, इन दोनों के पहले साध्य-साधकभाव से ( निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है, व्यवहारमोक्षमार्ग साधक है ) पहले कहा है । ( वृ० द्रव्यसंग्रह गाथा ४७ की टीका ) (६) निश्चय व व्यवहार का स्वर्ण और स्वर्णपाषाण के समान साध्य-साधनभाव है। (पंचास्तिकाय गाथा १०६ को उत्थानिका )। (७) निजशुद्धात्मा की रुचि, ज्ञान और निश्चल अनुभवरूप निश्चयमोक्षमार्ग है । इसका साधक व्यवहारमोक्षमार्ग है जो किसी अपेक्षा अनुभव में आनेवाले अज्ञान की वासना के विलय होने से भेदरत्नत्रय स्वरूप है। इस व्यवहार मोक्षमार्ग का साधन करता हुआ गुणस्थानों के चढ़ने के क्रम से जब यह आत्मा अपने शुद्ध मात्मिकद्रव्य की भावना से उत्पन्न नित्य मानन्द सुखामृतरस के स्वाद से तृप्तिरूप परमकला के अनुभव करने के द्वारा अपने ही शुद्ध आत्मा के आश्रित निश्चयनय से भिन्नसाध्य भिन्नसाधकभाव के अभाव से यह आत्मा ही मोक्षमार्गरूप हो जाता है। (पंचास्तिकाय गाथा १६१ श्री जयसेन टीका अथवा गाथा १७२ पर श्री अमृतचन्द्र स्वामी की टीका)। (८) अनादिकाल से मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्र द्वारा स्वरूपच्युत होने के कारण संसार में भ्रमण करते हुए, सुनिश्चलता ग्रहण किये गये व्यवहार-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के पाक के प्रकर्ष की परम्परा से क्रमशः स्वरूप में प्रारोहण कराये जाते आत्मा को अन्तर्मग्न जो निश्चयसम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप भेद है तद्रूपता के द्वारा स्वयं साधकरूप से परिणमित होता है, तथा परमप्रकर्ष की पराकाष्ठा को प्राप्त रत्नत्रय की अतिशयता से प्रवर्तित जो सकलकर्म के क्षय उससे प्रज्वलित हुए जो अतवलित विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्धरूप से परिणमता ऐसा एक ही ज्ञानमात्र उपाय-उपेयभाव को सिद्ध करता है । ( समयसार, उपाय-उपेयभाव )। (९) समयसार गाथा १२ तथा पंचास्तिकाय गाथा १६० इन दोनों की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने 'अप्रमत्तगुणस्थान तक व्यवहाररत्नत्रय होता है' ऐसा कहा है। इससे भी सिद्ध होता है व्यवहाररत्नत्रय साधक पौर निश्चयरत्नत्रय साध्य है आचार्य कहते हैं कि 'निश्चय व व्यवहार को साध्यसाधकरूप से मानने से ही मुक्ति की सिद्धि तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है' जो ऐसा नहीं मानता उसको मुक्ति की सिद्धि नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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