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________________ १३५० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री परमात्मप्रकाश अ० २ गाथा १४ ( अथवा गाथा १४० ) की टीका में इसप्रकार कहा है- साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः । अत्राह शिष्यः । निश्चयमोक्षमार्गे निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गे नास्ति कथं साधको भवतीति ? अन परिहारमाह- भूतनैगमनयेन परम्परया भवतीति । अर्थ - व्यवहारमोक्षमार्ग साधक है और निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है । यहां पर शिष्य प्रश्न करता है कि निश्चयमोक्षमार्ग निर्विकल्प है उस समय ( काल ) सविकल्पमोक्षमार्ग नहीं होता फिर सविकल्प (व्यवहार) मोक्ष - मार्ग कैसे साधक हो सकता है? आचार्य महाराज उत्तर देते हैं—भूतनैगमनय की अपेक्षा से ( व्यवहाररत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग निश्चयरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग का ) परम्परया साधक है । [ नोट - यहां पर भी व्यवहारमोक्षमार्ग को निश्चयमोक्षमार्ग का साधक कहा है । इसके आधार पर इससे विरुद्ध कथन करना उचित नहीं है जैसा सोनगढ़ मोक्षशास्त्र पृ० १२३ पर किया ।] इस गाथा की भाषा टीका में इसप्रकार लिखा है- 'जो अनादिकाल का यह जीव विषय कषायों से मलिन हो रहा है, सो व्यवहार साधन के बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता, जब मिथ्यात्व व्रत कषायादिक की क्षीणता से देव- गुरु-धर्म की श्रद्धा करे, तत्त्वों का जानपना होवे, प्रशुभक्रिया मिट जावे, तब वह अध्यात्म का अधिकारी हो सकता है । जैसे मलिन कपड़ा धोने से रंगने योग्य होता है, बिना धोये रंग नहीं लगता इसलिये परम्परया मोक्ष का कारण व्यवहाररत्नत्रय कहा है । [ नोट- यदि व्यवहाररत्नत्रय का प्रभाव निश्चयरत्नत्रय का साधक है तो व्यवहाररत्नत्रय का प्रभाव तो निगोदिया जीव के भी है, क्या वहाँ भी निश्चयरत्नत्रय हो जाएगा। फिर मोक्षशास्त्र ( सोनगढ़ से प्रकाशित ) के पत्र १३७ पर 'व्यवहाररत्नत्रय निश्चय का साधन नहीं है, किन्तु व्यवहार का अभाव निश्चय का साधन है' ऐसा लिखना कहाँ तक उचित है । साधन किसे कहते हैं, यह कथन आगे किया जावेगा । ] मोक्षमार्ग साधन है और मोक्ष साध्य है । मोक्षमार्ग तीर्थ है और मोक्ष तीर्थफल है। मोक्षअवस्था में मोक्षमार्ग का सद्भाव नहीं अपितु अभाव है । यदि इससे यह निष्कर्ष निकाला जावे कि मोक्ष का साधन मोक्षमार्ग का अभाव है, मोक्षमार्ग साधन नहीं है तो मिथ्यात्व को भी मोक्ष के साधनपने का प्रसंग श्रा जायेगा । अतः मोक्षमार्ग का अभाव मोक्ष का साधन नहीं है, किन्तु मोक्षमार्ग मोक्ष का साधन है । इसीप्रकार व्यवहाररत्नत्रय निश्चयरत्नत्रय का साधन है । श्री अमृतचन्द्रसूरिजी ने भी समयसार - आत्मख्याति टीका के अन्त में 'उपाय - उपेय' भाव का कथन करते हुए इसप्रकार लिखा है- 'अनादिकाल से मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र द्वारा स्वरूप से च्युत होने के कारण संसार में भ्रमण करते हुए, सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये व्यवहार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के पाक प्रकर्ष की परम्परा से क्रमशः स्वरूप में आरोहण कराये जाते आत्मा के अन्तर्मग्न जो निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद है ' के द्वारा स्वयं साधकरूप से परिगमित होता हुआ तथा परमप्रकर्ष की पराकाष्ठा को प्राप्त रत्नत्रय प्रवर्तित तद्रूपता जो सकल कर्म के क्षय उससे प्रज्वलित हुए जो अस्खलित विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्धरूप से परिणमता ऐसा एक ही ज्ञान मात्र उपाय - उपेयभाव को सिद्ध करता है । अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय की वृद्धि की परम्परा से जब स्वरूप अनुभव होता है तब निश्चयरत्नत्रय होता है । निश्चयरत्नत्रय वृद्धि को प्राप्त होता हुआ पूर्ण होने पर मोक्ष होता है। श्री पंचास्तिकाय की तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति में १५९ गाथा की टीका के पश्चात् इसप्रकार लिखा हैनिश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात् सुवर्णसुवर्णपाषाणवत् अर्थात् निश्चय और व्यवहार के साध्य - साधनभाव है जैसे सुवर्ण और सुवर्णपाषाण के साध्य-साधनभाव होता है, ( व्यवहार साधन है और निश्चय साध्य है । ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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