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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३४९ इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम यह कहना है कि श्री कानजीस्वामी के इस मतका खण्डन सोनगढ़ से प्रकाशित मोक्षशास्त्र पृष्ठ १३७ के इन शब्दों द्वारा हो रहा है । वे शब्द इसप्रकार हैं- ' व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शन का कारण नहीं हो सकता किन्तु उसका व्यय ( अभाव ) होकर निश्चय सम्यग्दर्शन का उत्पाद सुपात्र जीवों को अपने पुरुषार्थ से होता है ।' सोनगढ़ मोक्षशास्त्र के उक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि प्रथम व्यवहार सम्यग्दर्शन होता है उसके बाद निश्चयसम्यग्दर्शन होता है जबकि उक्त ग्रात्म धर्म में निश्चय को पूर्व में कहा है और व्यवहार को उसके ( निश्चयके ) पश्चात् कहा है । स्वयं श्रीकानजीस्वामी ने आत्मधर्म नं ० १३४, पृष्ठ ३९, कालम २ में इसप्रकार कहा है- 'निश्चयरत्नत्रय वह मोक्षमार्ग है और व्यवहाररत्नत्रय उससे विपरीत अर्थात् बन्धमार्ग है।' यहाँ पर व्यवहाररत्नत्रय को बन्धमार्ग अर्थात् संसारमार्ग अथवा संसार-कारण कहा है और निश्चयरत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहा है । संसारपूर्वक मोक्ष होता है ऐसा सिद्धांत है, क्योंकि जीव अनादिकाल से निगोद में पड़ा हुआ था। जब संसार पहले है और फिर मोक्ष है तो संसार कारण अर्थात् व्यवहाररत्नत्रय भी पहले होगा और मोक्षमार्ग अर्थात् निश्चयरत्नत्रय उसके बाद में होगा । यदि निश्चयरत्नत्रय को पहले और निश्चय के पश्चात् व्यवहार को माना जावे तो मोक्षपूर्वक संसार होने का प्रसंग या जावेगा अर्थात् मुक्त जीव भी कर्मबन्ध से सहित होकर संसार में भ्रमण करने लगेंगे । इसप्रकार श्री कानजीस्वामी का उक्तमत स्ववचनबाधित है । इस विषय में महान् प्राचार्यों का कहना है कि व्यवहार साधन है और निश्चय साध्य है । साधन से ही साध्य की सिद्धि होती है, क्योंकि साधन के होने पर ही साध्य की प्राप्ति होती है अतः साधन व साध्य का अविनाभावी सम्बन्ध है । साधन पूर्व में होता है अर्थात् व्यवहारनय पूर्व में होता है । श्रागमप्रमाण इसप्रकार हैतीर्थ तीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्लेण उण तच्चं ॥ स. सा. १२ आत्मख्याति टीका ॥ अर्थ — तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी ही व्यवस्था है । ( जिससे तिरा जाए वह तीर्थ है, ऐसा व्यवहार धर्म है और पार होना व्यवहार धर्म का फल है । ) अन्यत्र भी कहा है – प्राचार्य कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ का नाश हो जायगा और निश्चय के बिना तत्त्व का नाश हो जायगा । [ नोट- यह किसी पण्डित की निजी बात नहीं है, किन्तु समयसार की बात है। अब निश्चय को पहले कहने वाले विचार करें कि तीर्थफल पहले होता है या तीर्थ । ] श्री परमात्मप्रकाश अध्याय २ गाया १२ की टीका में कहा है-भेदरत्नत्रयात्मको व्यवहारमोक्षमार्गो साधको भवति, अभेद रत्नत्रयात्मकः पुननश्चय मोक्षमार्गः साध्यो भवति, एवं निश्चयव्यवहार मोक्षमार्गयोः साध्यसाधकभावो ज्ञातव्यः सुवर्णसुवर्णपाषाणवत् इति । Jain Education International अर्थ - भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्गसाधक होता है और अभेदरत्नत्रयात्मक निश्चयमोक्षमार्ग साध्य होता है । इसप्रकार निश्चय व व्यवहारमोक्षमार्ग के साध्य - साधकभाव जानना चाहिये जिसप्रकार सुवर्णपाषाण साधक है और सुवर्ण साध्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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