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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३१७ निश्चय-व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन, चारित्र, ज्ञानलक्षणवाला मोक्षमार्ग प्रात्मा को परमपद प्राप्त कराता है। अर्थात व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी मोक्ष के लिये कारण हैं । समयसार गाथा ४६ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है "निश्चयनय से शरीर और जीव को भिन्न-भिन्न बताया जाने पर त्रस-स्थावर जीवों को नि:शंकतया मसलदेने कूचलदेने (घात करने ) में हिंसा का अभाव ठहरेगा, जैसे भस्म को मसलदेने से हिंसा का अभाव ठहरता है, और हिंसा के अभाव में बंध का प्रभाव हो जायगा। दूसरे निश्चयनय के द्वारा जीव को राग-द्वेष, मोह से भिन्न बताया जाने पर रागी-द्वषी-मोही जीव कर्मसे बँधता है, उसे छडाता है। इसप्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का प्रभाव हो जायगा और इससे मोक्ष का ही प्रभाव हो जायगा। इसप्रकार यदि व्यवहारनय न माना जावे तो बंध-मोक्ष का ही प्रभाव ठहरता है।" इन आगमप्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यवहारनय झूठा नहीं है, वह भी अपने विषय के द्वारा वस्तु का यथार्थज्ञान कराता है। यदि कोई भी नय अपने विषय के द्वारा वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं कराता तो वह नय नहीं है, किन्तु नयाभास है। यदि कोई नय पर निरपेक्ष है तो वह मिथ्या है। कहा भी है-ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर वस्तु का निश्चय कराते हैं तो मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा के बिना ये नय जिसप्रकार वस्तु का निश्चय कराते हैं, वस्तु वैसी नहीं है। इसीलिये पंचास्तिकाय के अन्त में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने केवल निश्चयावलम्बी जीव और केवल व्यवहारावलम्बी जीव दोनों को मिथ्यादृष्टि कहा है, किन्तु निश्चयावलम्बी को दुर्गति का पात्र और व्यवहारावलम्बी को सुगति का पात्र कहा है। सभी नय सम्यक् हैं यदि वे सापेक्ष हैं और सभी नय मिथ्या हैं यदि वे निरपेक्ष हैं। 'अमुक नय सत्य है दूसरा नय मिथ्या है', ऐसा कहना आगमानुकूल नहीं है। नयों की प्रधानता से वचन बोला जाय वह व्यवहार सत्य है, यह सत्य का सातवाँ भेद है । नय का लक्षण इसप्रकार है-प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश के ग्रहण करनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं। अथवा श्र तज्ञान के विकल्पों को नय कहते हैं । अथवा ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं । अथवा जो नाना-स्वभावों से हटाकरके किसी एक स्वभाव में वस्तु को प्राप्त कराता है, उसको नय कहते हैं। द्रव्यों के दश विशेष स्वभाव हैं--चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव अनेकप्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव, उपचरितस्वभाव । ( आलापपद्धति )। इनमें से 'उपचरित स्वभाव' असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से है । उपचार पृथक्नय नहीं है, इसलिये उसको पृथक स्वतन्त्रनय नहीं कहा है। मुख्य के अभाव (गौरण ) होने पर और प्रयोजन व निमित्त होने पर उपचार की प्रवृत्ति होती है। वह भी अविनाभावसम्बन्ध, संयोगसम्बन्ध, परिणाम-परिणामीसम्बन्ध, श्रद्धा-श्रद्धयसम्बन्ध, ज्ञान-ज्ञेय १. जयधयल पु. १ पृ. २४५ । 2. 'प्रमाणेन वस्तुसगृहीतार्थेकांनो नयः, अतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो या नयः, नानास्वभावग्यो घ्यावयं एकस्मिस्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति था नयः।' (आलापपद्धति ) 3. 'असदभूतथ्यवहारेणोपचारतस्वभावः।' ( आलापपद्धति ) Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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