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________________ १३१६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : जीवे कम्मं बद्धपुढे चेदि ववहारणय भणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्ध पुट्ठ' हवई कम्मं ॥ १४१ ॥ कम्मं बद्धमबद्ध जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । पक्खातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥ १४२ ॥ दोण्हवि णयाण भणियं जाणइ णवरि तु समयपडिबद्धो । ण दु णय पक्खं गिण्हदि किचिवि णयपक्ख परिहीणो ॥१४३।। सम्मदसणणाणं एसो लहदित्ति णवरि ववदेस । सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ॥ १४४ ।। अर्थ-जीव में कर्म बँधा हुआ है और स्पर्शित है, ऐसा व्यवहारनय का कथन है और जीव में कर्म अबद्ध और अस्पर्शित है, ऐसा शुद्धनय का कथन है ।। १४१ ॥ जीव में कर्मबद्ध है अथवा अबद्ध है इसप्रकार तो नयपक्ष जानो; किन्तु जो पक्षातिक्रान्त है वह समयसार कहलाता है ॥ १४२ ॥ नयपक्ष से रहित जीव समय से प्रतिबद्ध होता हुआ दोनों नयों के कथन को मात्र जानता ही है, परन्तु नयपक्ष को किंचित् मात्र भी ग्रहण नहीं करता ॥ १४३ ॥ जो सर्व नयपक्षों से रहित कहा गया है वह समयसार है । यह समयसार ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान इस संज्ञा को प्राप्त होता है ॥ १४४ ॥ गाथा १४१ से यह स्पष्ट है कि व्यवहारनय पर्याय का कथन करता है, क्योंकि पर्याय की अपेक्षा यह जीव संसारी है और कर्मों से बँधा हुआ है, किन्तु निश्चयनय द्रव्य अर्थात् सामान्य का कथन करता है, क्योंकि सामान्य की अपेक्षा जीव अबद्ध बँधा हुआ नहीं है। गाथा १४२ से १४४ तक यह कहा गया है कि समयसार दोनों नयों से अतिक्रान्त है । अर्थात् द्रव्याथिक ( निश्चय ) नय और पर्यायाथिक ( व्यवहार ) नय का जो जुदा-जुदा विषय है वह द्रव्य का लक्षण ( स्वरूप ) नहीं है ( ज. ध. पु. १ पृ. २४८ )। व्यवहारनय को, सर्वथा झठ मानने पर मो. शा. अ. सत्र ६ 'प्रमाणनयरधिगमः' से विरोध आता है, क्योंकि झूठ के द्वारा वस्तु का बोध नहीं हो सकता। देव के स्वरूप को नहीं जाननेवाले को यदि देव का झूठा स्वरूप इसप्रकार कहा जावे कि जिसके सप्तधातुमय शरीर है और उसशरीर में नानाप्रकार के घाव ( जख्म ) हैं जिनमें से दुर्गंध आती है, एक पैर, दो सींग, दुम है, नाक नहीं होती वह देव है, तो वह स्वरूप समझ जावेगा? यदि व्यवहारनय भी इसप्रकार झूठ कथन करने वाला होता तो उसके द्वारा अज्ञानी समझाए नहीं जा सकते थे, किन्तु व्यवहारनय के द्वारा अज्ञानी समझाए जाते हैं।' अतः व्यवहारनय झूठा नहीं है। व्यवहारनय को असत्य कहना ठीक नहीं है । व्यवहारनय बहुत जीवों का उपकार करने वाला है, अतः उसका आश्रय करना चाहिये । इतना ही नहीं, श्री पद्मनन्दिआचार्य ने तो व्यवहार को पूज्य कहा है। मुख्योपचार विवृति, व्यवहारोपायतो यतः सन्तः । ज्ञात्वाश्रयन्ति शुद्धतत्त्वमिति व्यवहृतिः पूज्या ॥ ६०८ ॥ अर्थ-क्योंकि सज्जन मनुष्य व्यवहारनय के आश्रय से मुख्य और उपचार कथन को जानकर शुद्धतत्त्व का आश्रय लेते हैं अतएव व्यवहार पूज्य है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी पुरुषार्थसिद्धय पाय में कहा है कि यह १. 'अबुधस्थ बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्य भूतार्थम् । ( पुरुषार्थसिद्ध्य पाथ गाथा ) १. तह वचहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्क ॥ ८॥ ( समयसार गाथा - 3. जयधवल पु०१ पृ. ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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