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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३०१ सम्पूर्ण रत्नत्रयभाव न करनेवाले पुरुष के जो पुण्यकर्मबंध होता है वह बंध विपक्षकृत है अर्थात् सम्पूर्णरत्नत्रय का विपक्ष जो असम्पूर्णरत्नत्रय तत्कृत है। वह पुण्यबंध अवश्य ही मोक्ष का उपाय अर्थात् संसार का कारण नहीं है । समयसार १७१ की टीका में भी “स तु यथाख्यातचारिवावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ।” द्वारा यह कहा गया है कि यथाख्यातचारित्रावस्था से पूर्व राग का अवश्य सद्भाव होने से जघन्य ज्ञानगुण बंध का कारण है । पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय श्लोक २११ में अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा कथन है और श्लोक २१२ से २१६ तक शुद्धश्चियन की अपेक्षा कथन है । फिर भी कोई शुद्धनिश्चयनय का एकांतपक्ष न ग्रहण करले उसके लिये निम्नलिखित दो श्लोक दिये हैं सम्यक्त्वचारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्म्मणो बंन्धः । योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ॥ २१७ ॥ सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थंकराहारबन्धकौ भवतः । योगकषाय नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥ २१८ ॥ समय अर्थात् द्वादशांग में जो सम्यक्त्व के द्वारा तीर्थंकरप्रकृति का बंध और चारित्र के द्वारा आहारकशरीर नामकर्म का बंध कहा गया है वह भी नयवेत्ताओं को दोष के लिये नहीं है, क्योंकि एक नय के द्वारा वह कथन भी ठीक है । सम्यक्त्व के होने पर योग और कषाय तीर्थंकरप्रकृति के बंधक होते हैं और चारित्र के होने पर योग और कषाय आहारक के बंधक होते हैं । सम्यक्त्व व चारित्र के अभाव में तीर्थंकर व आहारक का बंध नहीं होता है । इसप्रकार तीर्थंकर र प्रहारकप्रकृति के बंध के साथ सम्यक्त्व और चारित्र का अन्वयव्यतिरेक सिद्ध हो जाने से, सम्यक्त्व और चारित्र के बंध का कारणपना सिद्ध हो जाता है । " यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विद इति न्यायात् ।" (ध. पु. १४ पृ. १३ ) " अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि हेतुफलभावः सर्व एव ।" ( मूलाराधना पृ. २३ ) " अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । " ( प्रमेयरत्नमाला ३३५९ ) इन न्यायशास्त्रों के अनुसार यद्यपि सम्यक्त्व और चारित्र के बंध का कारणपना सिद्ध हो जाता है तथापि वे उदासीन कारण हैं । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक २२० के पूर्वार्ध में शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कथन है और उत्तरार्ध में शुद्धनिश्चयrय की अपेक्षा कथन है । श्लोक इसप्रकार है Jain Education International रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥ २२० ॥ इस श्लोक में शुद्धरत्नत्रय निर्वाण का ही कारण है अन्य का कारण नहीं है । जो पुण्य का श्रास्रव होता है वह शुभोपयोग अर्थात् असमग्ररत्नत्रय का अपराध है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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