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________________ १३०० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत् ।" ये केचन वदंत्येकांतेन रागादयो जीवसंबंधिनः पुद्गलसंबंधिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या । कस्मादिति चेत् पूर्वोक्त स्त्रीपुरुषदृष्टांतेन संयोगोद्भवत्वात् । समयसार गाथा ११८ तात्पर्यवृत्ति टीका पुत्रोत्पत्ति स्त्री व पुरुष दोनों के संयोग से होती है। विवक्षावश माता की अपेक्षा कोई पुत्र को देवदत्ता का कहते हैं और अन्य कोई पिता की अपेक्षा पुत्र को देवदत्त का कहते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है, विवक्षाभेद से दोनों ही ठीक हैं वैसे ही जीव और पुद्गल इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्व-रागादिरूप भावप्रत्यय अशुद्धनिश्चयनय से चेतन हैं, क्योंकि जीव से सम्बद्ध हैं, किन्तु शुद्ध निश्चयनय से अचेतन हैं, क्योंकि पौद्गलिककर्मोदय से हुए हैं; किन्तु वस्तुस्थिति में ये एकान्त से न तो जीवरूप ही हैं, और न पुद्गल ही हैं। चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुई कुकुम के समान ये रागादि भी जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होनेवाले हैं। जो एकांत से रागादिक को जीव संबंधी या पुद्गलसंबंधी कहते हैं उन दोनों का कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं जैसा कि स्त्री-पुरुष के संयोग से पुत्रोत्पत्तिका दृष्टान्त दिया जा चुका है। इसीप्रकार सम्यक्त्व और राग के संयोग से तीर्थकरप्रकृति का बंध होता है । शुद्धनिश्चयनय से तीर्थंकरप्रकृति का बंध राग से होता है और अशुद्धनिश्चयनय से सम्यक्त्व के कारण तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध होता है। प्रमाण से तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कारण सम्यक्त्व और राग के संयोग से उत्पन्न हुआ आत्मपरिणाम है। जो एकान्त से तीर्थकरबन्ध का कारण मात्र सम्यक्त्व को मानते हैं या मात्र राग को कारण मानते हैं उन दोनों का वचन ठीक नहीं है, क्योंकि तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कारण तो सम्यक्त्व और राग का संयोगीभाव है। जैसे हल्दी व चूने का संयोगी कुकुमवर्ण है। श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक २१२-२१३-२१४ के आधार पर यदि कोई ऐसा एकान्तपक्ष लेता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र किसी भी अवस्था में तथा किसी भी अपेक्षा से बन्ध के कारण नहीं हैं, क्योंकि जितने अंशों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र हैं उतने अंश में बन्ध नहीं है. किन्तु जितने अंशों में राग है उतने अंशों में बन्ध है, तो उसका यह एकान्तपक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त श्लोकों में शुद्धनिश्चयनय के आश्रय से कथन किया गया है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने स्वयं तत्त्वार्थसार के निम्न श्लोक में सम्यक्त्व को देवायु के प्रास्रव का कारण कहा है। सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति देवायुषो ह्यते भवन्त्यावहेतवः ॥ ४।४३ ॥ सरागसंयम, सम्यक्त्व और देशसंयम ये सब देवायु के आस्रव के कारण हैं। ( नोट-यहां पर सम्यक्त्व के साथ सराग विशेषण नहीं है । ) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से कथन करते हुए लिखते हैं असमग्र भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥ २११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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