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________________ १२९८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : है, बत्ती का मुख जलाता है, तैल शोषण करता है, धूम्ररूप कालिमा को उत्पन्न करता है, इसप्रकार एक ही दीपक से एकसमय में अनेककार्य हो रहे हैं । प्रकाश तथा धूम्ररूप कालिमा यद्यपि ये दोनों परस्परविरुद्ध कार्य हैं तथापि एक ही समय में एक दीपक से हो रहे हैं । "समस्तविरुद्धाविरुद्ध कार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णतो।" समयसार गा. ३ को टीका। सर्वपदार्थ विरुद्धकार्य तथा अविरुद्धकार्य दोनों की हेतुता से सदा विश्व का उपकार करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा के एक ही भाव से कर्म निर्जरा होने और शुभ ( पुण्य ) बन्ध होने में कोई दोष नहीं है। "ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्राविस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात्, तत् कथं निर्जराङ्ग स्यादिति ? नेष दोषः, एकस्यानककार्यदर्शनादग्निवत् ।" सर्वार्थसिद्धि ९।३ । "परिषहजये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति ।" सर्वार्थसिद्धि ९७ । त. सू. अ. ९ सूत्र ३ में जो यह कहा गया है कि तप से निर्जरा होती है, उसपर यह शंका की यई कि तप निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है, क्योंकि तप से पुण्य होता है जिससे देवेन्द्रादि विशेषपदों की प्राप्ति होती है । आचार्य उत्तर देते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक से अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं। जैसे एक अग्नि से अनेककार्य देखे जाते हैं, उसीप्रकार एक तप से भी देवेन्द्रादि पद की प्राप्ति व निर्जरा मानने में कोई विरोध नहीं है । सूत्र ७ की टीका में पूज्यपादाचार्य तथा श्री अकलंकदेव लिखते हैं कि परीषह जीतने पर जो निर्जरा होती है। वह कुशलमूला निर्जरा है। वह कुशलमूला निर्जरा शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। अर्थात् १० वें गुणस्थान तक शुभानुबन्धा निर्जरा होती है और ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में निरनुबन्धा निर्जरा होती है। यद्यपि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग हैं (दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ।" समयसार गाथा ४१० ) तथापि जबतक ये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जघन्यभाव से परिणमते हैं तब तक इनसे पुण्यबंध भी होता है। दसणणाणचरित्त जं परिणमदे जहण्णभावेण । णाणी तेण दु बज्झवि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥ १७२ ॥ समयसार जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अर्थात् रत्नत्रय जघन्यभाव से परिणमन करता है, उस रत्नत्रय से ज्ञानी अनेकप्रकार के पुद्गलकर्मों से बँधता है। दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदग्वाणि । साहिं इदं भणिदं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥१६४॥ पंचास्तिकाय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है इसलिये सेवने योग्य है, ऐसा साधुअों ने कहा है। उन सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र से बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है। यदि कोई यह आशंका करे कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो संवर-निर्जरा व मोक्ष के ही कारण हैं, बंध के कारण तो राग-द्वेष ही हैं तो सर्वथा ऐसा एकान्त भी ठीक नहीं है । यदि सर्वथा ऐसा मान लिया जाय तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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