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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२९५ समाधान-एक कार्य होने में अनेक कारणों की आवश्यकता होती है। अनुकूल बाह्यसामग्री के मिलने में लाभान्तरायकर्म का क्षयोपशम, साता का उदय और पुरुषार्थादि सब कारण होने चाहिये । सातावेदनीय के उदय से दुःख उपशमने के कारणभूत सुद्रव्यों का सम्पादन होता है (ध. पु. ६ पृ. ३६, पु. १३ पृ. ३५७, पु. १५ पृ. ६) अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होना लाभ है (ध. पु. १३ पृष्ठ ३८९)। अभिलषित अर्थ की प्राप्ति में विघ्न करनेवाला लाभान्तराय कर्म है। लाभान्तरायकर्म के क्षयोपशम से किचित् विघ्न का अभाव होने से किचित् अर्थ की प्राप्ति हो जाती है। संसार में अनेक निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध बने हुए हैं। मदिरापान से ज्ञान का विपरीतपरिणमन हो जाता है। मंत्र से विष दूर हो जाता है। इसीप्रकार जीव का पुद्गल कर्मों से निमित्त-नैमित्तिकसंबंध है। पं० बनारसीदासजी ने कहा भी है-'शक्ति मरोड़े जीवको उदय महा बलवान।' आप्तपरीक्षा में कर्म का लक्षण इसप्रकार कहा है-"जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं।" -जं. स. 25-12-58/V/ कपूरीदेवी, गया पूर्वकृत कर्म तथा वर्तमान पुरुषार्थ; दोनों से कार्यसिद्धि सम्भव है शंका-भाग्य का विधाता कौन है ? क्या भाग्य के भरोसे बैठे रहना चाहिये ? क्या पुरुषार्थ के द्वारा भाग्य टाला भी जा सकता है ? समाधान-भाग्य का विधाता स्वयं जीव है । मात्र भाग्य के भरोसे नहीं बैठे रहना चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थ के द्वारा पूर्वोपार्जितकर्मों का संक्रमण व खण्डन हो सकता है। श्री समन्तभद्राचार्य ने आप्तमीमांसा में कहा है दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दवं पौरुषतः कथं । दैवतचेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत ॥ ८८ ॥ जो देव ( भाग्य ) ही ते एकान्तकरि सर्व प्रयोजनभूत कार्य सिद्धि है ऐस मानिए तो तहाँ कहिये है, जो पुण्य-पापकर्म सो पुरुष के शुभ-अशुभ आचरणस्वरूप व्यापार तै उपजे है। यदि यह कहा जाय कि अन्य देव जो पूर्व था तिसत उपजे है पौरुष ते नहीं उपजे ताको कहिए ऐसे तो मोक्ष होने का अभाव ठहरे है। यदि पूर्व-पूर्व देवते उत्तरोत्तर देव उपजा करे तो मोक्ष कैसे होय; पौरुष करना निष्फल ठहरेगा। तातै देव एकान्त श्रेषु नाहीं इसी कथन करि कोई ऐसा एकान्त करे जो धर्म का अभ्युदय तै मोक्ष होय है ताका भी निषेध जानना । सातै ऐसा है योग्यता अथवा पूर्वकर्म सो तो देव ( भाग्य ) है। यह तो अदृष्ट है । इस भवमें जो पुरुष चेष्टा करे उद्यम करे सो पौरुष है यह दृष्ट है। तिन दोऊ ते कार्य की सिद्धि होय है। मोक्ष भी होय है सो परमपुण्य का उदय और चारित्र का विशेष प्राचरणरूप पौरुषत होय है । तात देव ( भाग्य ) का एकान्त श्रेषु नाहीं है। -जं. ग. 8-1-70/VII/ रो. ला. मिचल मात्र उपादान से कार्यसिद्धि नहीं होती शंका-क्या कार्य उपादान से ही होता है ? निमित्त-कारण मानना क्या मिथ्यात्व है ? समाधान-कार्य के साथ जिसका अन्वय-व्यतिरेक हो वह कारण होता है। अनुकूल कारणों से और प्रतिबंधकारणों के अभाव में कार्य की सिद्धि होती है । कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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