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________________ १२९४ ] समाधान- - 'योग्यता' के पर्यायवाची नाम 'पूर्वकर्म' 'दैव' 'प्रदृष्ट' हैं ' । 'पुरुषार्थ' - इसभव में जो पुरुष चेष्टा करि उद्यम करे सो पौरुष है सो यह दृष्ट है ( आप्तमीमांसा पृ. ४० ) । अन्यत्र भी 'पुरुषार्थ' को इसप्रकार कहा है आलसड्ढो णिरुच्छाहो फलं किंचि ण भुजदे । थणक्खीरादिपाणं वा पउरुसेण विणा ण हि ॥ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ — जो प्रालस्यकर सहित हो तथा उद्यम करने में उत्साहरहित हो वह कुछ भी फल नहीं भोग सकता । जैसे बिना पुरुषार्थ के स्तनों का दूध पीना कभी नहीं बन सकता। इसप्रकार 'पुरुषार्थ' का प्रयोजन चेष्टा करना, उद्यम करना है । 'द्रव्यका पर्यायरूप परिणमन करना' पुरुषार्थ है, यह एक नई सूझ है जो श्रागमानुकूल नहीं है । योग्यता अथवा दैव यह तो अदृष्ट और पुरुषार्थ हृष्ट इन दोनों दृष्ट-ग्रदृष्ट से कार्य की सिद्धि अथवा पर्याय प्रगट होती है । केवल योग्यता अथवा केवल पुरुषार्थ से जीवकी पर्याय प्रकट नहीं होती । ( अष्टसहस्त्री ) । देवागम की कारिका ९१ में श्री स्वामी समन्तभद्राचार्य ने देव व पुरुषार्थ का समन्वय करते हुए कहा भी है - 'जो पुरुष की बुद्धिपूर्वक न होय तिस अपेक्षा विषै तो इष्टानिष्ट कार्य हैं सो अपने देव ही तें भया कहिये तहाँ पौरुषप्रधान नहीं, दैव का ही प्रधानपना है । बहुरि जो कार्य पुरुष की बुद्धिपूर्वक होय तिस अपेक्षा विषै पौरुष भया इष्टानिष्ट कार्य कहिये । तहाँ दैत्र को गौण भाव है पौरुष ही प्रधान है । जबकि कार्य की सिद्धि देव व पुरुषार्थ इन दोनों से अथवा निमित्त - उपादान, इन दोनों से होती है तो वह कार्य अर्थात् पर्याय एक से नहीं हो सकता है । कहा भी है कारणद्वयसाध्यं कार्य मेकेन जायते । द्वन्द्वोत्पाद्यमपत्य' किमेकेनोत्पद्यते क्वचित् ॥ अर्थात् — जिसप्रकार स्त्री-पुरुष दोनों से होनेवाली संतान केवल स्त्री या केवल पुरुष से उत्पन्न नहीं हो सकती उसी प्रकार जो कार्य दो कारणों से उत्पन्न होता है वह कार्य अर्थात् पर्याय एक कारण से कभी उत्पन्न नहीं हो सकती । संतानोत्पत्ति में जिसप्रकार नाना के यहाँ स्त्री की मुख्यता और पुरुष की गौणता होती है तथा बाबा के यहाँ पुरुष की मुख्यता स्त्री की गौणता होती है उसीप्रकार निमित्त व उपादानकारणों की भी मुख्यता व गौणता जाननी चाहिये । किसी भी एकान्त का कदाग्रह नहीं होना चाहिये । - . ग. 13-12-62/X/ डी. एल. भारती (१) एक कार्य अनेक कारण साध्य होता है (२) अनुकूल बाह्य सामग्री की प्राप्ति में सातोदय, लाभान्तराय का क्षयोपशम प्रादि अनेक कारण चाहिये Jain Education International शंका- 'लाभान्तरायकर्म के क्षमोपशम से सामग्री मिलती है' ऐसा आगम में कथन है। दूसरा कथन यह भी है कि साता के उदय से सामग्री मिलती है । साता का उदय पर है लाभान्तराय का क्षयोपशम आत्मा का स्वभाव है तथा आत्मशक्ति का विकास है । अतः क्षयोपशम से सामग्री मिलती है, यह समझ में नहीं आता ? १ योग्यता ( भव्यता ), पूर्वकर्मदेवमदृष्टमिति घटकलशयत्पर्यायनामानि । ( अष्टसहस्री पृ. २५६ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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