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________________ १२९२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : विस्तार एक योजन के इकसठ भाग में से अड़तालीस भाग प्रमाण है और बाहल्य उससे आधा है। प्रत्येक सूर्य के सोलह हजार प्रमाण आभियोग्य देव होते हैं जो नित्य ही विक्रिया करके सूर्य नगर तल को ले जाते हैं (तिलोयपणती अधिकार ७ गाथा ६६, ६८, ८०)। इसप्रकार सूर्य का दृष्टान्त विषम है। अनूकूल समस्त सामग्री के होने पर और बाधक कारणों के अभाव में कार्य होता है। मात्र एक कारण से कार्य नहीं होता । कहा भी है-'सामग्री जनिका, नैकं कारणं ।' ( राजवातिक अ० ५ सूत्र १७ वातिक ३१ व ३३ ) । अर्थात् कार्य की अनेक कारणों से सिद्धि होती है। श्री स्वामी समन्तभद्र आचार्य ने भी बृहस्वयंभू स्तोत्र में कहा है यद्वस्तु बाह्य गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं ते ॥ ५९ ॥ अर्थात अन्तरंग में विद्यमान मूलकारण के गुण और दोष को प्रकट करने में जो बाह्यवस्तु कारण होती है वह उस मूलकारण के अंगभूत अर्थात सहकारीकारण है। केवल अभ्यन्तरकारण अपने गणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है। भले ही अध्यात्मवृत्त पुरुष के लिये बाह्यनिमित्त गौण हो जाँय पर उनका प्रभाव नहीं हो सकता। अन्य स्थल पर भी कहा है-'यथा कार्य बहिरन्तरुपाधिभिः' अर्थात-कार्य बाह्य-अभ्यन्तर दोनों कारणों से होता है। श्री सर्वार्थसिद्धि अध्याय २ सूत्र ८ की टीका में भी कहा है-'जो अन्तरंग और बहिरंग दोनोंप्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है वह परिणाम उपयोग कहलाता है।' इसीप्रकार अध्याय ५ सत्र ३० की टीका में भी कहा है-'अन्तरंग और बहिरंगनिमित्त के वशसे प्रतिसमय जो नवीन अवस्था प्राप्त होती है वह उत्पाद है । अतः मात्र एक कारण से कार्य की सिद्धि नहीं होती है। -जं.ग. 21-5-64/IX/सुरेशचन्द्र मोक्ष रूपो कार्य में कर्मोदय व पुरुषार्थ को कारणता शंका--मोक्ष का पुरुषार्थ पहिले कर्मों के उदय से होता रहता है या इस जीव को वैसे कारण बनाने पड़ते हैं ? शान मोक्ष भी पर्याय है। प्रत्येक पर्याय के लिये अंतरंग और बहिरंग अनेक कारणों की आवश्यकता या करती है। अतः मोक्षप्राप्ति के लिये भी अनेककारणों की आवश्यकता होती है । यद्यपि यह जीवात्मा शुद्धनिश्चयनय से एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानानन्दमयी है तथापि व्यवहारनय से अनादिकर्मबन्धवशात् निगोदादि पर्यायों में मावा कर रहा है जहाँ पर मनरहित होने के कारण इतना भी ज्ञान का क्षयोपशम नहीं होता कि वह अपने हितअहित के उपदेश को ग्रहण कर सके । इसप्रकार भ्रमण करते हुए कभी ऐसा योग मिलता है कि प्रायबन्धकाल के समय चारित्रमोह के मन्दोदय के कारण इसके मनुष्यप्रायु का बन्ध हो जावे । यहाँ तक पुरुषार्थ की मुख्यता नहीं के कर्मों की मख्यता है। संज्ञी-पंचेन्द्रिय-पर्याप्त हो जाने पर यदि यह जीवात्मा अनेकान्तमयी वस्तु के यथार्थस्वरूप को समझने का प्रयत्न करे और उसममय ज्ञानावरणादि कर्मों का प्रतिसमय अनन्तगुणा-अनन्तगुणाहीन अनुभागो हो तथा परिणामों में प्रतिसमय अनन्तगुरणी विशुद्धता हो तो इसको मोक्षमार्ग की प्रथम सीढी सम्यग्दर्शन की पति हो सकती है। इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये तत्त्वों के यथार्थस्वरूप के उपदेश की भी आवश्यकता होती है। अतः जहाँ पर यथार्थ उपदेश प्राप्त हो सके ऐसे निमित्तों को मिलाना इसका कर्तव्य है। मात्र उपदेश से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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