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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२९१ "कश्चिदाह-केवलज्ञानं सकलनिरावरणं शुद्ध तस्य कारलेनापि सकलनिरावरणेन शुद्ध न भाव्यम्, उपादानकारण सदृशं कार्य भवतीति वचनात् । तत्रोत्तरं दीयते—युक्तमुक्त भवता परं किन्तूपादानकारणमपि षोडशवणिकासुवर्णकार्यस्याधस्तन वणिकोपादानकारणवत्, मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलोपादान कारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति । तहि पूर्वोक्त सवर्णमतिकादृष्टान्तद्वयवत्कार्यकारणभावो न घटते । ततः कि सिद्ध ? एकदेशेन निरा वरणत्वेन क्षायोपशमिकज्ञानलक्षणमेकदेशव्यक्तिरूपं विवक्षितकदेश शुद्धनयेन संवरशब्दवाच्य शुद्धोपयोगस्वरूपं मुक्तिकारणं भवति ।" वृ. द्र. सं. गा. ३४ टीका। कोई शंका करता है केवलज्ञान समस्त प्रावरण से रहित शुद्ध है, इसलिये केवलज्ञान का कारण भी समस्त प्रावरणरहित शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि 'उपादानकारण के समान कार्य होता है' ऐसा आगमवचन है ? इस शंका का उत्तर देते हैं-पापने ठीक कहा, किन्तु सोलहवानी के सुवर्णरूप कार्य का अधस्तन वरिणकायें उपादानकारण होती हैं तथा मिट्टीरूप घटकार्य का मृतिकापिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादानकारण होता है। इन दोनों दृष्टान्तों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपादानकारण भी कार्य से एकदेश भिन्न होता है । (सोलहवानी सोने के प्रति जैसे पूर्व की सब पन्द्रहरिणकार्य उपादान कारण हैं और घट के प्रति मिट्टी-पिण्ड स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं। सो ये कारण सोलहवानी के सुवर्ण और घटरूप कार्य से एकदेश भिन्न हैं, बिलकुल सोलहवानी के सुवर्णरूप और घटरूप नहीं हैं । इसीप्रकार सब उपादानकारण कार्य से एकदेश भिन्न होते हैं। ) यदि उपादानकारण का कार्य के साथ एकान्त से सर्वथा अभेद या भेद हो तो कार्य-कारण-भाव सिद्ध नहीं होता है, जैसा कि उपर्युक्त सुवर्ण और मिट्टी के दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट है। इससे यह सिद्ध हुआ कि क्षायोपशमिकज्ञान क्षायिकज्ञान का उपादानकारण होता है। इससे शंकाकार को स्पष्ट हो जायगा कि लब्धि और उपयोग में कारण-कार्य भाव होने पर भी कथंचित् भेद है अतः उपयोग लब्धिरूप नहीं हो सकता । लब्धि और उपयोग दोनों क्षायोपशमिकज्ञान की पर्याय हैं इस अपेक्षा अभेद है, किन्तु दोनों पर्याय भिन्न-भिन्न हैं इस अपेक्षा भेद है। श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है-- "यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति कारणसदृशं हि लोके कार्यदृष्टम् इति नैतदेकान्तिम् । दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः ।" सर्वार्थ सिद्धि यदि श्रु तज्ञान मतिपूर्वक होता है तो वह श्र तज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है, क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है ? यह कोई एकान्तनियम नहीं है कि कार्य के समान कारण होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दण्डादिक से होती है तो भी घट दण्डादिस्वरूप नहीं होता। -जं. ग. 23-1-69/VII/ रो. ला. मित्तल निमित्त व उपादान दोनों कारणों से कार्य होता है शंका-जब रथ एक चक्र से चल सकता है जैसे सूर्य रथ केवल एक सूर्य रूपी चक्र ( चक्का, पहिया) पर चलता है तो कार्य भी केवल एक कारण से हो जावे अंतरंग और बहिरंग दो कारणों की मानने की क्या आवश्यकता ? समाधान-एक चक्र से रथ नहीं चलता, कहा भी है—'नह्य कचक्रेण रथः प्रयाति।' ( राजवातिक )। सूर्य रथ नहीं है । सूर्य विमान भी चक्र नहीं है । सूर्य तो अर्ध गोलक के सदृश है। सूर्य बिम्ब के उपरिम तल का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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