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________________ १२८८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : टीका-"यथा हि जलं स्वयमगच्छन्मत्स्यानप्रेरयत्ततेषां स्वयं गच्छतां गतेः सहकारिकारणं भवति ।" अर्थात्-जैसे जल न तो स्वयं चलता है और न मछलियों को चलने की प्रेरणा करता है ( चलाता है ), किन्तु जब स्वयौं मछलियां चलती हैं तो जल सहकारीकारण होता है। "पतत्निप्रभृतिद्रव्यं गतिस्थितिपरिणामप्राप्ति प्रत्यभिमुखं नान्तरेण बाह्यानेककारणसन्निधि गति स्थिति चावाप्तुम्............।" ( राजवातिक ) अर्थात् --पक्षी आदि गति या स्थिति के सम्मुख होते हुए भी बाह्य अनेककारणों ( निमित्त कारणों ) के बिना चल और ठहर नहीं सकते। इसप्रकार जो अप्रेरकनिमित्तकारण है वह Nominative Cause नहीं हो सकता । वह तो Dependence on a Special cause या Helper cause होता है। निमित्तकारण को प्रायः बाह्यकारण कहा जाता है जैसा कि उपर्युक्त राजवातिक की पंक्ति से स्पष्ट है । श्लोकवातिक में भी निमित्तकारण को बाह्यकारण और उपादान को अन्तरंगकारण कहा है जैसे "बहिरन्तरुपाधिः यथासंख्यं सहकार्युपादानकारणरनवस्थितं रहितं कार्य यथार्थकृन्न ।" अर्थात-बाह्यउपाधि सहकारीकारण और अंतरंगउपाधि उपादानकारण के बिना कार्य नहीं किया जा सकता। सम्यक्त्वोत्पत्ति में दर्शनमोहनीयकर्म के उपशम आदि निमित्तकारण को अंतरंगकारण और जिनसूत्र तथा उनके ज्ञातापुरुष आदि निमित्तकारणों को बहिरंगकारण कहा है सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिवा सणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ [नियमसार] अर्थात्-जिनसूत्र और उनके ज्ञातापुरुष सम्यग्दर्शन के बाह्यनिमित्त कारण हैं। दर्शनमोहनीय द्रव्यकर्म के क्षय आदि अंतरंगनिमित्त कारण हैं । "साधनं द्विविधं अभ्यन्तरंबाह्य च । अभ्यन्तरं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमोवा बाह्य नारकाणां प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधनं केषाञ्चिज्जातिस्मरणं केषाञ्चिद्धर्म श्रवणं केषाञ्चिद्व वनाभिभवः।" (स० सि०) अर्थ- सम्यग्दर्शन के साधन दो प्रकार हैं । १. अभ्यंतर २. बाह्य । दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तरसाधन है । नारकियों में चौथे नरक से पहले किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण और किन्हीं के वेदनाभिभव बाह्यसाधन हैं । ( यहाँ पर अंतरंग और बहिरंग दो प्रकार का निमित्तकारण का कथन है उपादानकारण प्रात्मपरिणाम इनसे अतिरिक्त है।) -जं. ग. 17-1-66/XII/ पो. लक्ष्मीपन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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