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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२८७ इसका अभिप्राय यह है कि "कार्य एक कारण से निष्पन्न नहीं होता, क्योंकि प्रवर्तमान अन्य कारणों को सफलपना है । जब सहकारीकारण हैं तो क्या वे कार्य के प्रति उपकार न करते हुए ही कार्य को प्रपेक्षित हो रहे हैं । यदि यह कहा जाये कि वे उपादानकारण के सहायक यह ठीक नहीं है, क्योंकि वह उपादानकारण बन जायगा, कार्य का सहकारी न बन सकेगा । जो उपादानकारण की परम्परा न लेकर सीधा ही कार्य में उपादानकारण के साथ व्यापार करता है, अतः उपादान के साथ उस कार्य को करने का स्वभाव होने से वह सहकारी कारण है। कार्य करने में अकेला उपादान असमर्थ है । निमित्तकारण अर्थात् सहकारीकारण के साथ ही उपादान कार्य करने में समर्थ होता है । इसप्रकार सहकारीकारण की कार्य में सहायता होने से उपादान की समर्थता खण्डित हो जाती है । इसी बात को श्री विद्यानन्दस्वामी अष्टसहस्त्री में निम्नप्रकार करते हैं— " तदसामर्थ्य मखण्डदकिञ्चित्करं कि सहकारिकारणं स्यात् ? "1 अर्थात् — जो उपादान की असमर्थता को खण्डित करने में अकिंचित्कर है, क्या वह सहकारी कारण हो सकता है ? 'अपितु न स्यादेव' वह सहकारी कारण नहीं हो सकता । इससे सिद्ध है कि निमित्तकारण कार्योत्पत्ति में सहायक होता है । कोष में भी निमित्त कारण का अर्थ'वह कारण जिसकी सहायता या कर्तृत्व से कोई वस्तु बने' इसप्रकार किया है। अतः निमित्त कारण को HELPER, APPARENT CAUSE, DEPENDENCE ON A SPECIAL CAUSE, INSTRUMENTAL OR EFFICIENT CAUSE कह सकते हैं । निमित्तकारण दो प्रकार का है, एक प्रेरक दूसरा अप्रेरक अर्थात् उदासीन । जैसे आत्मा के लिये द्रव्यकर्म प्रेरकनिमित्तकारण है और पवन ध्वजा के लिए प्रेरकनिमित्तकारण है । अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ । भुवणत्तयहं वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि रोइ ||१|६६ | | ( परमात्मप्रकाश ) अर्थात् - आत्मा पंगुके समान है, ग्राप न कहीं जाता है न आता है। तीनों लोक में इस जीव को कर्म ही ले जाता है कर्म ही ले आता है । " प्रभञ्जनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्त्ताऽवलोक्यते ।" पं. का. अर्थात् -- पवन अपने चंचल स्वभाव से ध्वजाओं की हलन चलनरूप क्रिया का कर्ता देखने में आता है । इन वाक्यों से सिद्ध होता है कि प्रेरकनिमित्तकारण कार्य का कर्ता होता है अतः प्रेरकनिमित्तकारण Nominative-Cause है, किन्तु अप्रेरकनिमित्तकारण उपादान के साथ कार्योत्पत्ति में सहायक होता है । जैसे मछलियोंको जल तथा पक्षियों को पवन आदि चलने में सहकारी होते हैं, किन्तु जल मछलियों और पवन पक्षियों को चलाता नहीं है । जल के बिना मछलियाँ और पवन के बिना पक्षी गमन नहीं कर सकते, अतः गमनरूप कार्य में इनकी सहायता की आवश्यकता होती है। कहा भी है "उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए ।" पं. का. अर्थात् -- जैसे इस लोकमें जल मछलियों के गमन के उपकार को सहाय होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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