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________________ १२५२ 1 [पं० रतनचन्द जैन मुस्ता। मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन की सहचरता के कारण ज्ञानके भी मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान ऐसे दो भेद हो गये हैं । सम्यग्ज्ञान का लक्षण बतलाते हुए श्री समंतभद्राचार्य ने कहा है अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं, विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ४२ ॥ [ र.क. भा. ] जो न्यूनतारहित, अधिकतारहित, विपरीततारहित और संदेहरहित तथा जैसा का तैसा जानता है वह सम्यग्ज्ञान है। सर्वज्ञदेव केवलीभगवान ने द्रव्य का लक्षण सत्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तथा गुण, पर्यायवाला कहा है। दन्वं सल्लक्खणय, उत्पावन्वय धुवत्तसंजर्स । गुणपज्जयासयं वा, जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥ १०॥ [ पंचास्तिकाय ] सर्वज्ञदेव ने द्रव्य को सत् लक्षणवाला, उत्पाद व्यय ध्रौव्य से संयुक्त अथवा जो गुण-पर्यायों को आश्रय आधारस्वरूप कहा है । इसीप्रकार मोक्षशास्त्र में भी कहा गया हैसंस्कृत टीका-"पूर्वभावविनाशः समुच्छेवः" "सद्रव्यलक्षणम् ॥ २६॥ उत्पावव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ॥ ३०॥ गुणपर्ययवद्रव्यम् ॥ ३८ ॥" [ मोक्षशास्त्र ] एवं भावमभावं मावामा अभावभावं च । गुणपज्जयेहि सहिदो, संसरणमाणो कुणवि जीवो ॥ २१॥ श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत टीका सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारममाणस्य भावाभावकर्तृत्वमुपपावितं । तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्या भावभाव कर्तृत्वमभिहितं ।" एवं सदो विणासो असदो, जीवस्स होइ उप्पायो । इदि जिणवरेहिं भणि, अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्धं ॥ ५४॥ [ पंचास्तिकाय ] इसप्रकार केवलीभगवान जिनेन्द्रदेव ने यह कहा कि पर्यायाथिकनय से सत्पर्याय का विनाश होता है और असत्पर्याय का उत्पाद होता है, द्रव्याथिकनय से द्रव्य का न उत्पाद है और न व्यय है क्योंकि द्रव्याथिकनय की अपेक्षा द्रव्य नित्य है मोर पर्यायार्थिक की अपेक्षा अनित्य है । अतः द्रव्य नित्यानित्यात्मक है। कुछ की ऐसी मान्यता है कि असत्पर्याय का उत्पाद नहीं होता और न सत्पर्याय का व्यय होता है ऐसी मान्यतावाले जैनधर्म अर्थात् अहंत के मतसे बाह्य है, क्योंकि, यदि पर्याय का अपने उत्पाद से पूर्व उस पर्यायरूप से सद्भाव था तो वह घट व शब्दादि पर्याय अनादि ठहरती है, सो है नहीं। यदि विवक्षितपर्याय का उस पर्यायरूप से विनाश न माना जाय तो घट व शब्द आदि पर्याय के अविनाशिताका प्रसंग आता है सो है नहीं, क्योंकि घट व शब्द आदि पर्याय का घटरूप से तथा शब्दरूप से विनाश पाया जाता है। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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