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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२५१ जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से जानता है वह दिव्यज्ञान नहीं हो सकता । केवलज्ञान दिव्यज्ञान है इसीलिये यह कहा गया है कि वह केवलज्ञान प्रत्यक्ष जानता है अर्थात् इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना जानता है । यदि भूत और भावि को भी सद्भावरूप माना जाय तो निम्न दोष प्राते है कार्य द्रव्यमनावि स्यात्प्रागभावस्य निह्नवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥ १० ॥ [ देवागम ] अर्थ- प्रागभाव का आलाप होने पर कार्यरूप द्रव्य के अनादि हो जाने का प्रसंग आता है तथा प्रध्वंसरूप धर्म का ( प्रध्वंसाभाव का ) अभाव होने पर वह धनन्तता ( अविनश्वरता ) को प्राप्त हो जायगा । विशेषार्थ कार्य के उत्पन्न होने के पूर्व में जो उसकार्य की अविद्यमानता है, उसे प्रागभाव ( प्राक् + प्रभाव ) कहा जाता है । इस अभाव को न मानने पर घटपटादि कार्य ( पर्यायें ) अपने स्वरूपलाभ ( उत्पत्ति ) के पूर्व में भी विद्यमान ( सद्भाव ) ही रहना चाहिये । इसप्रकार प्रागभाव ( प्राक् + अभाव ) के अभाव में घटादि कार्यो ( पर्यायों ) के अनादि हो जाने का अनिष्ट प्रसंग आता है । कार्यं ( पर्याय ) के विनाश का नाम प्रध्वंसाभाव (प्रध्वंस प्रभाव ) है इस अभाव को स्वीकार न करने पर चूंकि घटादि कार्यों (पर्यायों ) का उत्पन्न होने के पश्चात् कभी विनाश तो होगा ही नहीं, प्रतएव उन ( पर्यायों ) के अनन्त ( अन्तरहित ) हो जाने का प्रसंग आता है, परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि घटादि पर्याय विशेषों का अपनी उत्पत्ति के पूर्व में धौर विनाश के पश्चात् उन-उन आकार विशेषों में अवस्थान देखा नहीं जाता [ घ० पु० १५ पृ० २९ ] इस श्लोक से यह स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य में भूतपर्यायों (प्रौर भविष्यत्पर्यायों का सद्भाव नहीं होता तब केवली प्रसद्भूत को जान भी कैसे सकते ? ) - पं. ग. 1/8-3-73 / चन्दनमल गांधी "क्रमबद्ध नियत पर्याय" सिद्धान्त प्रागम से प्रतिकूल है । थ्य की भाविपर्याय नियत ( निश्चित ) नहीं होती । शंका - श्लोकवार्तिक पु० ४ पृ० ७४ पर तथा सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथों में केवली को त्रिकालज्ञ माना गया है सो सिप्रकार ? समाधान - मात्र केवलज्ञान ही नहीं, किन्तु प्रत्येकज्ञान कालज्ञ है, क्योंकि ज्ञान का लक्षण निम्नप्रकार कहा गया है. Jain Education International जाणs तिकाल सहिए, दध्व-गुणे-पज्जए य बहु मेए । पचखं च परोक्खं अपेण णाले सि ण वेति ।। ९१ ॥ [ ध. पु. १. १४४ ] जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक समस्त द्रव्य, उनके गुण और उनकी अनेकप्रकार की पर्यायों को प्रत्यक्ष ( इन्द्रियादि की सहायता के बिना ) और परोक्ष ( इन्द्रियादि की सहायता से ) जाने वह ज्ञान है । १. कोष्ठकस्थोऽयं पाठः समाधातुः अन्यलेखस्थ भावानुसारेण संलग्नीकृतः । सं० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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