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________________ १२४२ ] [१० रतनचन्द जैन मुख्तार। सोनगढ़ सिद्धान्त में इस नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्व को ही क्रमबद्धपर्याय के नाम से कहा गया है। यदि सोनगढ़वाले नियतिवाद अर्थात् क्रमबद्ध-पर्याय का प्रतिपक्षी अनियतवाद अर्थात् क्रमप्रबद्धपर्याय को भी स्वीकार कर लेते तो एकान्त मिथ्यात्व का दूषण न आता, किन्तु सोनगढ़वाले तो सर्वथा नियतिवाद अर्थात् क्रमबद्धपर्याय को ही मानते हैं अतः उनकी क्रमबद्धपर्याय की मान्यता एकान्त मिथ्यात्व है, क्योंकि मिथ्यामतियों का वचन 'सर्वथा' कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है और जैनों का वचन 'कचित्' कहा जाने से वास्तव में सम्यक है। कहा भी है परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सम्वहा वयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो ॥ प्रवचनसार इसका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'सध्वपयस्था सप्पडिवषखा' अर्थात् सर्व पदार्थ सप्रतिपक्ष उपलब्ध होते हैं।' ऐसे सिद्धान्त का उपदेश दिया है जैसा मुक्तपर्याय का प्रतिपक्ष संसारपर्याय है। अभव्यपर्याय का प्रतिपक्ष भव्यपर्याय है। संसारपर्याय के अभाव में मुक्तपर्याय के अभाव का प्रसंग आता है। भव्यों के अभाव में प्रभव्यों के प्रभाव का प्रसंग आता है। "जेहि अवीवकाले कवाचि वि तसपरिणामो ण पत्तो ते तारिसा अणंता जीवा णियमा अस्थि, अण्णहा संसारे भव जीवाणमभावावत्तीदो। ण चाभावो, तदभावे अभध्वजीवाणंपि अभावावत्तीवो। ण च तं पि, संसारीणमभावावत्तीदो। ण चेदं पि, तदभावे असंसारीणं पि अभावप्पसंगादो। संसारीणमभावे संते कथं असंसारीणम. भावो ? वुच्चदे, तं जहासंसारीणमभावे सते असंसारिणो वि णस्थि, सव्वस्स सप्पडिवक्खस्स उवलंभण्णहाणुववत्तीदो। ___ अर्थ-जिन्होंने प्रतीतकाल में कदाचित् भी त्रसपर्याय प्राप्त नहीं की है वैसे अनन्त जीव नियम से हैं, प्रत्यथा संसार में भव्य जीवों का अभाव प्राप्त होता है, भव्यजीवों का अभाव है नहीं, क्योंकि उनका अभाव होने पर अभव्यजीवों का भी अभाव प्राप्त होता है। अभव्यजीवों का भी अभाव नहीं है, क्योंकि उनका प्रभाव होने पर संसारीजीवों का भी अभाव प्राप्त होता है। संसारीजीवों का भी अभाव नहीं है, क्योंकि संसारीजीवों का प्रभाव होने पर मुक्तजीवों के अभाव का प्रसंग आता है। संसारी जीवों का अभाव होने पर मुक्तजीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि अन्यथा बन नहीं सकती। सादिपर्याय की प्रतिपक्षी अनादिपर्याय है। सान्तपर्याय की प्रतिपक्षी अनंतपर्याय है। सूक्ष्मपर्याय की प्रतिपक्षी बादरपर्याय है। प्रतिपक्षीपर्याय के अभाव में विवक्षितपर्याय के भी प्रभाव का प्रसंग आता है। धवल आगम में कहा भी है "जदि सुहुमणामकम्म ण होज्ज, तो सुहुमजीवाणमभावो होज्ज । ण च एवं, सप्पडियक्खाभावे बादरणं पि अभावप्पसंगादो।" यदि सूक्ष्मनामकर्म न हो तो सूक्ष्मपर्यायवाले जीवों का अभाव हो जायगा, किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि बादरपर्याय की प्रतिपक्षी सूक्ष्मपर्याय के अभाव में बादरपर्याय वाले जीवों के अभाव का भी प्रसंग प्राता है । यदि क्रमबद्धपर्याय को स्वीकार न किया जायगा तो उसके अभाव में, उसके प्रतिपक्षरूप क्रमबद्धपर्याय का भी प्रभाव हो जायगा और पर्याय का प्रभाव हो जाने पर द्रव्य का भी प्रभाव हो जायगा। द्रव्य के प्रभाव हो जाने पर सर्वशून्यवाद का प्रसंग आ जायगा, किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से विरोध प्राता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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