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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२४१ भी कोई पुरुषार्थ न करे तो इसमें उस मनुष्य का ही दोष है। वर्तमान में हमारे कर्मोदय मंद है। यदि हम . जिनवाणो के उपदेशानुसार श्रद्धान व पाचरण करें तो संसार समुद्र से पार हो सकते हैं। यदि क्रमबद्धपर्याय के भरोसे पड़े रहेंगे तो हमारा कल्याण होने वाला नहीं है । पुरुषार्थ की हीनता मुख्य कारण है और कर्मोदय गौण है। कहा भी है "यथा शत्रोः क्षीणावस्यां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरूषं कृत्वा शव हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति, हीयमानस्थित्यनुभागत्वेनं कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवंति तदा धीमान भध्य निर्मल भावनाविशेषखङ्गन पौरुषं कृत्वा कर्मशत् हन्तीति ।" वृहद् द्रव्यसंग्रह गा० ३७ टीका -ज'. ग. 29-6-72/IX/ रो. ला. जन 'सर्वथा क्रमबद्धपर्याय', यह एकान्त मिथ्यात्व है शंका-सोनगढ़ से प्रकाशित ज्ञानस्वभाव व ज्ञेयस्वभाव पुस्तक के पृ०७ पर लिखा है-गोम्मटसार में नियतिवाद को मिथ्यात्व कहा है। जैसा होना होगा वैसा होगा, ऐसा कहकर स्वच्छन्द होकर मिथ्यात्व का पोषण करें, उसे नियतिवाद कहा है। यदि ज्ञान स्वभाव का निर्णय करके क्रमबद्ध पर्याय को समझें तो इस पुरुषार्थ से मिथ्यात्व और स्वच्छन्दता छूट जावे । क्या यह लिखना ठीक है ? समाधान-जिनवाणीरूप द्वादशांग के बारहवें दृष्टिवाद अंग के सूत्रनामक अर्थाधिकार में ३६३ मतों का पूर्वपक्षरूप से वर्णन है। इस सूत्र नामक अर्थाअधिकार के अट्टासी अधिकारों में से तीसरे अधिकार में नियतिवाद' एकांत मिथ्यात्वका पूर्वपक्ष से कथन है । कहा भी है अट्ठासी अहियारेसु चउण्डमहि याराणमत्थ णिद्दे सो। पढमो अबंधयाणं विदियो तेरा सियाण बोद्धथ्वा ।। ७६ ॥ तदियो य णिय इ-पक्खे हवदि चउत्थो ससमयम्मि । सूत्रनामक प्राधिकार के अट्टासी अधिकारों में से चार अधिकारों का नाम निर्देश मिलता है। उनमें पहला अधिकार अबन्धकों का, दूसरा शिकवादियों का, तीसरा नियतिवाद का इसप्रकार ये तीन परमतों के अधिकार समझने चाहिये । चौथा अधिकार स्वसमय का प्ररूपक है। जिस नियतिवाद एकान्तमिथ्यात्व का कथन पूर्वपक्षरूप से तीसरे अधिकार में है, उसका स्वरूप गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में निम्नप्रकार कहा है जत्त जवा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्त तदा। तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु ॥ जो, जिससमय, जिससे, जैसे, जिसके नियम से होता है, वह, उससमय, उससे, तैसे, उसके होता ही है। ऐसा नियम से सबके मानना, वह नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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