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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२३५ लिये द्रव्य को अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायों के समूह के बराबर कहा गया है। किन्तु इतने मात्र से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि पर्यायें नियत हैं या क्रमबद्ध हैं । इससे तो यह सिद्ध होता है कि पूर्व पूर्व पर्यायों का व्यय होता रहता है और उत्तर-उत्तर पर्यायें उत्पन्न होती हैं। अमुकसमय में अमुकपर्याय ही उत्पन्न होगी, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, जो ऐसा नियम मानता है वह मिथ्यादृष्टि है । कहा भी है - यदा यथा यत्र यतोऽस्ति येन यत्, तदा तथा तत्र ततोऽस्ति तेन तत् । स्फुटं नियत्येह नियंत्रयमाणं, परो न शक्तः किमपीह कर्तुम् ॥ ३१२ ॥ (पंचसंग्रह) जिसका, जहाँ, जब, जिसप्रकार, जिससे, जिसके द्वारा, जो होना है, तब, तहाँ, तिसका, तिसप्रकार, उससे, उसके द्वारा वह होना नियत है, अन्य कुछ हेर फेर नहीं कर सकता। ऐसा जो मानता है वह एकान्तमिथ्यादष्टि है । उत्तर पर्याय की उत्पत्ति अंतरंग और बहिरंग कारणों के प्राधीन है । द्रव्य में नानाप्रकाररूप परिणमन करने की शक्ति होने पर भी, जिसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव मिल जायगा उस पर्यावरूप परिणमन होगा । उसको रोकने में कोई भी समर्थ नहीं है । कहा भी है कालाइ लद्धि जुत्ता जाणा सतीहि संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदु ॥ २१९ ॥ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा यहाँ यह बतलाया गया है कि द्रव्य में नानापर्यायरूप परिणमन करने की शक्ति है। जिसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव मिल जायेंगे उस पर्यायरूप उसद्रव्य का परिणमन हो जायगा । अंतरंग धौर बहिरंग दोनों कारणों के मिल जाने पर उस पर्याय के उत्पाद को कोई नहीं रोक सकता है । कुछ की ऐसी मान्यता है कि "जिसप्रकार सिनेमा के फिल्म की रील पर नानाचित्र क्रमशः बने रहते हैं मौर सिनेमा के पर्दे पर उन चित्रों का नियतक्रम से आविर्भाव व तिरोभाव होता रहता है और फिल्म उतनी ही है जितनी कि रील पर चित्रों की संख्या है । इसीप्रकार द्रव्य भी उतना ही है जितनी कि उसकी कालिकपर्यायें हैं जो कि द्रव्य के अन्दर विद्यमान हैं और अपने नियतक्रम से उन पर्यायों का आविर्भाव व तिरोभाव होता रहता है ।" किन्तु उनकी यह मान्यता जैन सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है । जैन सिद्धान्तमें पर्यायों का आविर्भाव व तिरोभाव स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु असत्-पर्याय का उत्पाद और सत्पर्याय का व्यय ( नाश ) माना गया है । Jain Education International जदि दध्वे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति । ता उत्पत्ती बिहला पडिपिहिदे देवदत्ते व ॥ २४३ ॥ सव्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उत्पत्ती । कालाई - लढीए अणाइहिणम्मि वव्वम्मि ।। २४४ ॥ अर्थ – जिसप्रकार देवदत्त विद्यमान है, किन्तु पर्दे के पीछे छिपा हुआ है, पर्दा हटने पर प्रगट हो जाता । उसी प्रकार द्रव्य में सर्वं पर्यायें विद्यमान हैं किन्तु तिरोहित (छिपी ) हैं । यदि ऐसा माना जाय तो 'पर्यायों का उत्पाद होता है' ऐसा कहना व्यर्थ हो जायगा । अनादि-निधन द्रव्य में कालादि (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव ) के मिलने पर अविद्यमान ( असत् ) पर्यायों की उत्पत्ति होती है । ( स्वामिकार्तिकेवानुप्रक्षा ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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