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________________ १२३४ [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसी सम्बन्ध में प्रवचनसार की दूसरी गाथा निम्न प्रकार है तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहि वा अहियं । अधिवसतु तम्हि णिच्चं इच्छदि जवि दुक्खपरिमोक्खं ॥ २७० ॥ संस्कृत टीका-यतः परिणामस्वभावत्वेनात्मनः सप्ताचिः संगतं तोयमिवावश्यंभावि विकारत्वाल्लौकिक. संगात्संयतोऽप्यसंयत एव स्यात् । ततो दुःखमोक्षार्थिना गुणः समोऽधिको वा श्रमणः श्रमणेन नित्यमेवाधिवसनीयः तथास्य शीतापवरककोणनिहितशीततोयवत् समगुणसंगाद्गुणरक्षा शीततरतुहिनशर्करासंपृक्तशीततोयवत् गुणाधिकसंगात गुणवृद्धिः॥ २७०॥ ___इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने बतलाया है-"जीव परिणामस्वभाववाला है इसलिये लौकिकजनों की संगति से विकार का होना अवश्यंभावी है अर्थात् संयत मनुष्य भी भसंयत हो जाता है। जैसे अग्नि के संयोग से जल में विकार होना अवश्यंभावी है अर्थात् अपने शीतलस्पर्श को छोड़कर उष्ण हो जाता है। इसलिये सांसारिक दुःखों से मुक्ति चाहनेवाले श्रमण ( मुनि ) को (१) समानगुणवाले श्रमणों के साथ अथवा (२) अधिकगुणवाले श्रमण के साथ सदा ही निवास करना चाहिये। (१) जैसे शीतलघर के कोने में रखे हए शीतलजल के शीतलगुण की रक्षा होती है, उसीप्रकार समान गुणवाले मुनियों की संगति से उसश्रमण के गुणों की रक्षा होती है (२) जैसे अधिक शीतल हिम (बरफ) के संपर्क से शीतलजल के शीतलगुण में वृद्धि होती है, उसीप्रकार अधिक गुणवाले मुनियों की संगति से श्रमणके गुणों में वृद्धि होती है।" इस गाथा व टीका में श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तीन सिद्धान्त बतलाये हैं (१) एक का दसरे पर प्रभाव पड़ता है, (२) द्रव्य का परिणमन स्वभाव होने पर भी वह परिणमन किसप्रकार का हो वह निमित्ताधीन है अर्थात निमित्त के कारण परिणमन में विशेषता का होना अवश्यंभावी है । (३) क्रमबद्धपर्याय अर्थात एकांतनियतिवाद का निषेध, क्योंकि मुनि की इच्छा पर निर्भर है कि वह लौकिक जग की संगतिकर अपने संयमगुण का नाश कर देवे अथवा समान-गुणवालों की संगति करके संयमगुण की रक्षा कर लेवे, या अधिकगुणवालों की संगति कर अपने संयम गुण में वृद्धि कर लेवे। इन गाथाओं से भी सिद्ध होता है कि परिणाम स्वभाववाला लोहा भी रसायन के प्रयोग अर्थात् संगति से सुवर्ण बन जाता है। -जं. ग. 14-5-70/IX/ रोशनलाल मित्तल क्रमबद्ध-नियत पर्याय को मान्यता प्रागम-विरुद्ध है शंका-जितनी तीनों काल की पर्यायें हैं उतना ही द्रव्य है । वे पर्यायें क्रम से होती हैं अर्थात् एकके बाद दूसरी हुआ करती है। पर्यायें क्योंकि कालक्रमसे होती हैं, इसलिये वे नियत हैं अतः उनको क्रमबद्ध मानने में क्या हानि है ? समाधान-पर्याय का लक्षण क्रमवर्ती है। 'क्रमवतिनः पर्यायाः' आलापपद्धति । भखण्ड प्रदेशसमूहवाला द्रव्य पर्यायों को प्राप्त हुमा था, प्राप्त हो रहा है और प्राप्त होगा। कहा भी है-"निजनिज प्रदेशसमूहैरखण्डवृत्या. स्वभावविभावपर्यायान द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवविति द्रव्यम् ।" आलापपद्धति अर्थात् जो अपने-अपने प्रदेशसमूह के द्वारा प्रखंडरूप से स्वभाव-विभाव पर्यायो को प्राप्त होता है, प्राप्त होगा और प्राप्त हुआ था वह द्रव्य है। इसी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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