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________________ १२३० ] । ५० रतनचन्द जैन मुख्तार । कोई जीव गाथा ३२१ व ३२२ को पढ़कर नियतिवादी एकांतमिथ्यादृष्टि न बन जावे ऐसा विचारकर श्री स्वामी कातिकेय ने गाया ३२३ व ३२४ में कहा कि 'जो सर्वज्ञ के आगमानुसार द्रव्य को सवं पर्यायनिको जारण है. श्रदान करे है अथवा जो जिन वचन में श्रद्धा करे है जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है वह सर्व ही है, भले प्रकार इष्ट कर हैं' वह सम्यग्दृष्टि है । सर्वज्ञ के मागम में पर्यायों को शुद्ध-अशुद्ध, स्वभाव-अस्वभाव काल-अकाल, नियत-अनियत अर्थ-व्यंजन इत्यादि सप्रतिपक्ष कहा है। सम्यग्दृष्टि की सप्रतिपक्षपर्यायों पर सर्वज्ञमागम अनुसार श्रद्धा है किन्तु प्रयोजनवश कहीं पर किसी को गौण और किसी को मुख्य कर लेता है। जैसे अनित्य, प्रशरण प्रादि भावनाओं के समय दण्याथिक नय को गौण करके पर्यायाथिक नय की मुख्यता से, 'वस्तु को नाशवान, अपने आप को शरण रहित' आदि विचार करता है। सम्यग्दृष्टि को किसी एकान्त का पक्ष नहीं होता, उसको स्याद्वादमयी सर्वज्ञवाणी अथवा प्रागम पर पूर्ण श्रद्धा होती है। इसलिये सम्यग्दृष्टि मानता है कि पर्याय नियत भी हैं और अनियत भी हैं । -जं. ग. 6-3-66/IX/........... (१) परस्पर विरुद्ध नययुगल के ग्रहण से अनेकान्त होता है (२) अकालनय से कार्यसिद्धि समयाधीन नहीं है (३) गणधर देव ने भी अनियत पर्याय का कथन किया था शंका-क्या "काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत ( अदृष्ट ) और पुरुष" इन पांचों के मानने से अनेकान्त होता है ? या काल अकाल, स्वभाव अस्वभाव, नियति अनियति, देव-पुरुषार्थ के मानने से अनेकांत होता है। समाधान-परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को मानने से अनेकांत होता है। जो धर्म परस्पर विरुद्ध नहीं है ऐसे प्रनेको के मानने से अनेकांत नहीं होता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में 'सव्य सपडिवक्खा' सिद्धांत का उपदेश दिया है अर्थात 'सर्वप्रतिपक्षसहित है', ऐसा उपदेश श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने दिया है जिसका अनुसरण श्री अमृतचन्द्राचार्य तथा श्री वीरसेनादि आचार्यों ने किया है। श्री प्रवचनसार में कालनय अकालनय, स्वभावनय-प्रस्वभाव नय, नियतिनय-अनियतिनय, देवनय-पुरुषार्थ नय. ईश्वरनय-अनीश्वरनय इसप्रकार परस्पर विरुद्धनयों का कथन है। यदि इन परस्पर विरुद्धनय युगलों में से किसी एक नय को तो माना जावे और उसकी प्रतिपक्षी दूसरी नय को स्वीकार न किया जाय तो एकांतमिथ्यात्व का प्रसंग आ जाता है। जैसे कांटा तो स्वभावनय से तीक्ष्ण है, किन्तु आलपिन तो स्वभावनय से तीक्ष्ण नहीं, उसमें मीणाता उत्पन्न की जाती है। अतः आलपिन अस्वभावनय से तीक्ष्ण है। यदि प्रस्वभावनय को स्वीकार न किया जातो आलपिन में तीक्ष्णता का अभाव मानना पड़ेगा। इसी प्रकार कोई कार्य अपने व्यवस्थित समयपर उत्पन्न सोमा और किसी कार्य का काल व्यवस्थित नहीं होता है, किन्तु कारणों के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। विशेष बाह्य कारणों से निरपेक्ष होने वाली मृत्यु का मृत्युकाल व्यवस्थित ( निश्चित ) है । किन्तु शस्त्रप्रहारादि कारणों से होनेवाली अपमृत्यु का मृत्युकाल शस्त्रप्रहार आदि के द्वारा उत्पन्न होता है। (श्लो० वा० २।५३ ) इसलिये प्रवचनसार में कहा है कि कालनय से कार्य की सिद्धि समय के प्राधीन होती है, और अकालनय से कार्य की सिद्धि समय के प्राधीन नहीं है। अतः 'काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत ( अदृष्ट ) और पुरुषार्थ' इन पाँचों की परस्पर सापेक्षता से अनेकांत नहीं होता, एकांतमिथ्यात्व ही रहता है। किन्तु काल अकाल की सापेक्षता से, स्वभाव-अस्वभाव की सापेक्षता से. नियति अनियति की सापेक्षता से, देव और पुरुषार्थ की सापेक्षता से अनेकांत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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