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________________ व्यक्तित्व पोर कतित्व ] [ १२२६ ३२१ व ३२२ में, व्यंतर आदि देवों की पूजा न करने के संस्कारों को दृढ़ करने के लिये सम्यग्दृष्टि क्या विचार करता है, सम्यग्दृष्टि के उन विचारों का कथन है। गाथा ३२३ में यह कहा है कि जो जिनागम पर्थात् सर्वश के आगम अनुसार द्रव्य निकी सर्वपर्यायों को जाने है, श्रदान करे है वह सम्यग्दृष्टि है । इसप्रकार गाथा ३२१ व ३२२ का सम्बन्ध गाथा ३२३ से नहीं है। ___ गाथा ३२१ व ३२२ में सर्वज्ञ का लक्षण नहीं है। श्री पं० जयचन्दजी को टीका प्रमाणस्वरूप नो उद्धृत की गई, किन्तु उस पर विचार नहीं किया गया। यदि उस पर विचार कर लिया जाता तो एकान्तनियतिवाद की दृष्टि समाप्त हो जाती। श्री पं० जयचन्दजी ने गाथा ३२१ व ३२२ के शीर्षक में लिखा है, 'मागे सम्यग्दृष्टि के विचार होय सो कहे हैं।' इस शीर्षक के होते हुए यह कहना कि 'गाथा ३२१ व ३२२ में सर्वज्ञ का स्वरूप कहा गया है', ठीक नहीं है। गाथा ३२१ व ३२२ का सम्बन्ध गाथा ३२० से है क्योंकि गाथा ३२० में भी सम्यग्दृष्टि के विचारों का कथन है। भत्तीए पुज्जमाणो वितरदेवो विवेदि जदिलच्छी। तो कि धम्म कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी ॥ ३२० ।। श्री पं० जयचन्दजी कृत अर्थ- सम्यग्दृष्टि ऐसे विचार है जो 'व्यंतरदेव ही भक्ति करि पूज्या हुमा लक्ष्मी दे है तो धर्म काहे कू कीजिये ।' ___ गाथा ३२०, ३२१ व ३२२ में सम्यग्दृष्टि के विचारों का कथन एक दृष्टि से है किन्तु सर्वथा ऐसा नहीं है। क्योंकि जैनधर्म का मूल सिद्धान्त 'अनेकान्त तथा सर्वसप्रतिपक्ष' है। श्री अकलंकवेव तथा विद्यानन्दस्वामी ने देवों के प्रभाव का लक्षण इसप्रकार किया है-'ऋद्ध होकर किसी को अनिष्ट प्राप्त करा देना शाप स्वरूप प्रभाव है और किसी के ऊपर प्रसन्न होते हुए इष्ट प्राप्त करा देना अनुग्रह नामक प्रभाव है। 'शापानुग्रहलक्षणः प्रभावः । शापोऽनिष्टापावनम्, अनुग्रह इष्टप्रतिपादनम् ।' इन सर्वज्ञवाक्यों पर सम्यग्दृष्टि की दृढ़ श्रद्धा है, किन्तु व्यंतर देव की पूजा-निषेध के लिये वह उपयुक्त सर्वज्ञ वाक्य को गौण करके यह विचारता है कि व्यंतर आदि लक्ष्मी नहीं दे सकते, किंतु धर्म करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी प्रवचनसार गाथा ६ में कहा है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी धर्म से निर्वाण भी मिलता है तथा देवेन्द्र, प्रसुरेन्द्र और चक्रवर्ती आदि की सम्पदा प्राप्त होती है। गाथा इसप्रकार है संपज्जवि णिज्वाणं देवासुर मणुयरायविहवेहि । जीवरस चरित्तादो दसण गाणप्पहाणादो ॥ ६ ॥ सम्यग्दृष्टि यह भी जानता है कि सर्वज्ञदेव ने द्वादशांग के दृष्टिवादनामक बारहवें अंग में यह कहा है'जिसका, जहाँ, जब, जिसप्रकार, जिससे, जिसके द्वारा जो होना है तब, तहाँ, तिसका, तिसप्रकार, उससे, उसके द्वारा वह होना नियत है, अन्य कुछ नहीं कर सकता ऐसी मान्यता एकांतमिथ्यात्व है। इस सर्वज्ञवाक्य पर सम्परदृष्टि की पूर्ण श्रद्धा है, किन्तु व्यंतरदेव की पूजा के निषेध को दृढ़ करने के लिए इस सर्वज्ञवाक्य को गौण करके वह सम्यग्दृष्टि नियतनय के अनुसार विचार करता है कि जो जिस जीव के, जिस देशविर्ष, जिस काल विर्ष, जिस विधानकरि, जम्म तथा मरण सर्वज्ञदेव ने जाण्या है जो ऐसे ही नियमकरि होयगा, सो ही तिस प्राणी के, तिस ही देश में, तिस ही काल में तिस हो विधान करि नियमत होय है ताकू इन्द्र तथा जिनेन्द्र तीर्थंकरदेव कोई भी निवारि नहीं सके है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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