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________________ ८] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! संक्षेप से व्यवहारनय का कथन सुनो। जैसे सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को सफेद करती है, उसी प्रकार सम्यग्दष्टि अपने स्वभाव से परद्रव्य का श्रद्धान करता है । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र में व्यवहारनय का निर्णय कहा है । अन्य पर्यायों में इसी प्रकार जानना चाहिए । इन गाथाओं की टीका में यह कहा है कि निश्चयनय की दृष्टि में स्वस्वामिरूप अंश ( आत्मा का श्रद्धान) भी व्यवहार है । व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण है; मात्र इसलिये उसको ( व्यवहारसम्यग्दर्शन को ) सम्यग्दर्शन की संज्ञा नहीं दी गई है । सम्यग्दर्शन का जो लक्षण 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्', व्यवहारसम्यग्दर्शन में पाया जाता है तथा सम्यग्दर्शन के बाधककारण मिध्यात्वकर्मोदय का भी अभाव है । इसलिये व्यवहारसम्यग्दर्शन मी वास्तविक सम्यग्दर्शन है । समयसार गाथा ३७३ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा भी है " मिथ्यात्वादिसप्त प्रकृतीनां तथैव चारित्रमोहनीयस्य चोपशमक्षयोपशमक्षये सति षद्रव्यपंचास्तिकाय सततत्त्वनवपदार्थादि श्रद्धानज्ञानरागद्वेषपरिहाररूपेण भेदरत्नत्रयात्मकव्यवहार मोक्षमार्गसंज्ञेन व्यवहारकारण समयसारेण साध्येन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेवरत्नत्रयात्मक निर्विकल्पसमाधिरूपेणानंतकेवलज्ञानादिचतुष्टयव्य क्तिरूपस्य कार्यसमयसारयोत्पादकेन निश्चयकारणसमयसारेण विना खल्वज्ञा निजीवो रुष्यति तुष्यति च ।" इसका सारांश यह है कि 'मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के तथा चारित्रमोहनीय के उपशम क्षयोपशम व क्षय होने से छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्त्व, नवपदार्थ आदि का श्रद्धान ज्ञान व रोगद्व ेष का त्याग, यह भेदरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व्यवहारमोक्षमार्ग है । इसके द्वारा साधन योग्य विशुद्धज्ञान-दर्शन स्वभावरूप शुद्ध आत्मीक तत्त्वरूप सम्यक्ज्ञान चारित्र अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्पसमाधिमय निश्चयमोक्षमार्ग है ।' सातप्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यग्दर्शन यदि सविकल्पावस्था में है, तो वह भी व्यवहारसम्यग्दर्शन है । निर्विकल्पसमाधि में स्थित अर्थात् श्रेणी में स्थित जीव के उपशमसम्यग्दर्शन भी निश्चयसम्यग्दर्शन है । सातप्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय से व्यवहार व निश्चय दोनों सम्यग्दर्शन उत्पन्न होते हैं, अतः करणानुयोग की दृष्टि से दोनों ही सम्यग्दर्शन वास्तविक हैं । श्री अमृतचन्द्राचार्य भी पंचास्तिकाय गाथा १०७ की टीका में कहते हैं कि व्यवहारसम्यग्दर्शन में मिथ्यात्वकर्म का अनुदय रहता है । "भावाः खलु कालकलित पंचास्तिकाय विकल्परूपा नव पदार्थाः तेषां मिथ्यादर्शनोवया पाविताश्रद्धानाभावस्वभावं भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं शुद्ध-चैतन्यरूपात्मतस्व विनिश्चय बीजम् ।" अर्थ - कालसहित पंचास्तिकाय और विकल्प रूप नव पदार्थ इनको भाव कहते हैं । मिथ्यादर्शन के उदय से उत्पन्न हुआ जो अश्रद्धान, उसका अभाव होने पर पंचास्तिकाय और नव पदार्थ का श्रद्धान वह व्यवहार सम्यग्दर्शन है और यह शुद्ध आत्मतत्त्व के निश्चय का बीज है । श्री समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार गाथा ४ में 'सच्चे देव शास्त्र और गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन' कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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