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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व 1 [ ८९७ अर्थ - यदि कहा जाय-व्यवहारनय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें व्यवहार का अनुसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है । अतः जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है उसीका श्राश्रय करना चाहिये। ऐसा मन में निश्चय करके गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में मंगल किया है । इस प्रकार नय, निश्चयनय, व्यवहारनय का स्वरूप समझ लेने से निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्दर्शन का स्वरूप सरल हो जाता है । सम्म सणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्दो तत्तियमइओ जिओ अप्पा ॥ ३९॥ वृहद द्रव्यसंग्रह अर्थ-व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र इन तीनों के समुदाय को मोक्ष का कारण जानो और निश्चयनय से इन तीनों मयी निज आत्मा को मोक्ष का कारण जानो । सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र मोक्षमार्ग हैं यह सत्य है, किन्तु भेद-विवक्षा होने से इसको व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है और विवक्षा से इन तीनमयी श्रात्मा को मोक्षमार्ग कहा गया है । इसी बात को श्री कुंकु व भगवान ने पंचास्तिकाय गाथा १६१ के इन वाक्यों द्वारा कहा है"चिचयणयेण भणिदो तिहि तेहि समाहिदोहु जो अप्पा ।" अर्थात् - निश्चयनय से सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र इन तीन से युक्त यह आत्मा मोक्षमार्ग कहा गया है । इसी दृष्टि से श्री नेमिचन्द्राचार्य ने वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ४१ में निम्न वाक्यों द्वारा व्यवहार और निश्चय सम्यग्दर्शन को कहा है "जीवादीसहहणं सम्मत्तं रूवमपणो तं तु । " अर्थात् - जीवादि पदार्थों का श्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन है । वह सम्यग्दर्शन अभेदनय से आत्मा का स्वरूप है, इसलिये सम्यग्दर्शन स्वरूपमयी आत्मा निश्चयसम्यग्दर्शन है । श्री कुंकु व भगवान स्वाश्रित और पराश्रित की अपेक्षा से निश्चय और व्यवहारसम्यग्दर्शन का स्वरूप कहते हैं Jain Education International जह सेडिया वुण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ । तह वंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु ॥ ३५९ ॥ एवं तु णिच्छपणयस्स मासियं णाणदंसणचरिते । सुख वबहारणयहस य वत्तव्यं से समासेण ॥३६०॥ जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अध्पणो सहावेण । तह परवध्वं सद्दहद्द सम्मदिट्ठि सहावेण ॥ ३६४ ॥ एवं ववहारस्त दु विणिच्छओ णाणदंसणचरिते । भणिओ अलेसु वि पज्जएसु एवमेव णायव्वो । ३६५ ॥ [ समयसार ] अर्थात् —- जैसे सेटिका ( खड़िया) पर की नहीं है, सेटिका तो सेटिका ही है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन पर का नहीं है, दर्शन तो दर्शन है। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र में निश्चयनय का कथन है और उस सम्बन्ध में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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