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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२०३ ___ समाधान -श्री समयसार शास्त्र यद्यपि पुद्गलमयी जड़ है तथापि अक्षर, शब्द, पद और वाक्यों का समूह है। अर्थ और शब्द में वाच्य और वाचकसम्बन्ध है। कहा भी है-"जिसप्रकार प्रमाण, प्रदी सूर्य, मणि, चन्द्रमा आदि घट-पट आदि प्रकाश्यभूत पदार्थों से भिन्न रहकर भी उन पदार्थों के प्रकाशक देखे जाते हैं, उसीप्रकार शब्द अर्थ से भिन्न होकर भी अर्थ का वाचक होता है। जयधवल पु०१०२४१।" "बाह्य शब्दात्मक निमित्तों से क्रम से जो वर्णज्ञान होता है और जो अक्रम से स्थित रहते हैं उनसे उत्पन्न होनेवाले पद और वाक्यों से अर्थ-विषयक ज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है-जयधवल पु०१पृ० २६८।" "शब्द से पद की सिद्धि होती है पद की सिद्धि से उसके अर्थ का निर्णय होता है, अर्थनिर्णय से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है। और तत्त्वज्ञान से परमकल्याण होता है।"-धवल पु० १ पृ० १० । पद वाक्यों से पदार्थों का बोध होता है अतः निमित्त कर्ता की अपेक्षा श्री समयसार शास्त्र 'मव्यजीवमनः प्रतिबोधकारक' (भब्यजीवों को प्रतिबोध करनेवाला) है। पदार्थ के बोष से तत्त्वज्ञान होता है और उस तत्त्वज्ञान से परमकल्याण होता है अतः समयसारशास्त्र पुण्यप्रकाशक है। व्यवहारनय से यह सब कथन वास्तविक है, क्योंकि दो भिन्न द्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध उपचरितअसद्भ तव्यवहारनय का विषय है। यदि उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय को सर्वथा अवास्तविक माना जाय या पंचाध्यायी ग्रन्थ को प्रामाणिक मानकर नयाभास माना जावे तो समयसारशास्त्र 'भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं व पुण्यप्रकाशक' नहीं हो सकता। _ 'पुण्य' विष्ठा नहीं है । किसी भी आचार्य ने 'पुण्य' के लिये विष्ठा जैसे अपवित्र शब्द का प्रयोग नहीं किया, किन्तु जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है वह पुण्य है ( स० सि. अ०६ सूत्र ३)। प्रात्मा को पवित्र करनेवाला पुण्य ज्ञानीजीवों के लिये त्याज्य कैसे हो सकता है ? अ को नष्ट करनेवाले शास्त्रों की स्वाध्याय ज्ञानीजन कैसे करेंगे। 'वाक्य' स्वयं यह बतला रहा है कि मेरा 'वक्ता' अर्थात का कोई अवश्य होना चाहिये। यदि पुद्गल को कर्ता माना जावे तो पुद्गल तो जड़ है वह प्रमाणभूत नहीं हो सकता, अत: समयसारशास्त्र को प्रमाणता प्राप्त नहीं होगी। किन्तु समयसारशास्त्र प्रामाणिक है, अतः उसका कर्ता भी प्रमाण अर्थात् ज्ञान होना चाहिये । कहा भी है -'वचन ज्ञान का कार्य है।' ध० पु. १ पृ. ३६८ । ज्ञान जीव के आश्रय से रहता है अतः समयसारशास्त्र के मूलग्रंथ कर्ता सर्वज्ञदेव, उत्तरग्रथ कर्ता श्री गणधरदेव और रचयिता श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव हैं क्योंकि वे समयसारशास्त्र के निमित्तकर्ता हैं। निमित्त कर्ता प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि आगमप्रमाण से निमित्त-कर्ता सिद्ध है। कहा भी है-'शास्त्र की प्रमाणता को दिखलाने के लिये कर्ता का प्ररूपण किया गया है, क्योंकि वक्ता को प्रमाणता से ही वचन में प्रमाणता आती है ऐसा न्याय है।' (ध० पु० १ पृ० ७२ )। जैसे दर्पण में मयूर का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है। वह प्रतिबिम्ब मयूर का है या दर्पण की स्वच्छता का विकार है । उपादान की दृष्टि से देखा जावे तो वह प्रतिबिम्ब दर्पण की स्वच्छता का विकार है; अन्यथा पत्थर आदि में भी प्रतिबिम्ब हो जाना चाहिये था। किन्तु वह प्रतिबिम्ब मयूर के निमित्त से हुआ है, मयूर के अभाव में प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। जिसके होने पर जो होता है और जिसके बिना जो नियम से नहीं होता वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है ध० पु. १२ पृ० २८८-२८९, आप्तपरीक्षा ४०.४१ । प्रतिबिम्ब का परिणमन भी मयर के परिणमन के अधीन है। अतः प्रतिबिम्ब का कर्ता मयूर है। जिसकी सहायता या कतत्व से कोई वस्त बने, वह निमित्त कारण है ( संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ)। शास्त्ररचनारूप परिणमन श्री सर्वज्ञदेव तथा श्री गणधरदेव तथा कुन्दकुन्दाचार्य के ज्ञान के अनुसार हुअा है अतः वे ग्रन्थकर्ता हैं । यह वास्तविक है। कथन-मात्र नहीं है या अवास्तविक नहीं है। अनेकान्त में यह सब सत्य है। -जं. ग. 25-1-64/VII/ म. प. जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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