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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२०१ प्रमेयरत्नमाला अध्याय ४ सूत्र १ को टीका में भी कहा है "तत्रान्यानपेक्षत्वं तावदसिद्धम्, घगद्यभावस्य मुद्गरादिध्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् । तत्कारणस्वोपपत्तेः।" श्री पं० जयचन्दजी कृत अर्थ-नाश ( व्यय ) विर्षे अन्य की अपेक्षात रहितपणा हेतु कह्या सो प्रसिद्ध है जातै घटादिक का अभाव (व्यय) के मुग्दर प्रादि के व्यापार का अन्वय व्यतिरेक का अनुसारीपणात तिसके प्रभाव ( घट के व्यय ) के प्रति कारणपणा है । मुग्दर की दिये घट फूट, न दे तो न फूट है। श्री स्वामिसमन्तभद्राचार्य ने प्राप्तमीमांसा में कहा है अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुर्न हिसकाः ।" श्री पं० जयचन्दजी कृतं अर्थ-क्षणक्षय एकान्तवादी नाश ( व्यय ) कू अहेतुक कहे हैं। जो वस्तु विनस है सो स्वयमेव विना हेतु विनसे ( व्यय होय ) है । सो ऐसा कहते है तो जो हिंसा करने वाला हिंसक है सो हिंसा का हेतु न ठहरया। इसप्रकार यह बतलाया है कि यदि पर्याय का व्यय अहेतुक माना जायगा तो हिसारूप पाप का प्रभाव हो जायगा। श्री पूज्यपादाचार्य ने भी सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ सत्र ३० की टीका में कहा है "उभयनिमित्तवशाद्मावान्तरावाप्तिकल्पावनमुत्पादः ।" भन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से जो नदीन अवस्था की उत्पत्ति वह उत्पाद है। "तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः।" उसीप्रकार अर्थात् अंतरंग और बहिरंग निमित्त के वश से पूर्व अवस्था के निकल जाने को अर्थात् नाश को व्यय कहते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्पाद और व्यय बहिरंग निमित्तों की भी अपेक्षा रखता है। बहिरंग निमित्त दो प्रकार के हैं-सामाग्य व विशेष । सभी उत्पाद और व्ययों में सामान्य बहिरंग निमित्त कालद्रव्य है और प्रत्येक उत्पाद व व्यय के लिये विशेष निमित्त भिन्न-भिन्न हैं। कहा भी है "धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिवृत्ति प्रति स्वात्मनंव वर्तमानानां बाह्योपमहाद्विना तवृत्त्यमावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षितः काल इति कृत्वा वर्तना कालस्योपकारः। को णिजर्थः? वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता कालः।" (स. सि. २२२ ) अर्थ-यद्यपि धर्मादिकद्रव्य अपनी-अपनी नवीनपर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह उत्पत्ति बाह्य सहकारीकारण के बिना नहीं हो सकती इसीलिये उसे प्रवर्तानेवाला काल है, ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है। निजथं क्या है? द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलनेवाला काल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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