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________________ १२०० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार | यहाँ पर 'ज्ञान' शब्द से सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान इन दोनों को ग्रहण किया गया है, क्योंकि इन दोनों में साहचर्य है । इन ग्रन्थों से यह स्पष्ट हो जाता है कि चारित्रहीन अथवा ( चारित्ररहित ) के भी सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होता है अथवा चारित्र के प्रभाव में भी वह सम्यग्ज्ञान होता है जिसका तत्वार्थसूत्र में कथन है । इन प्राग्रन्थों की दि० जैनाचार्यों द्वारा रचना हुई है, अतः दि० जनाचार्यों को यह मान्य रहा है कि 'किसी चारित्रहीन ( चारित्ररहित ) व्यक्ति को भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जाता है । किन्तु वह सम्यग्ज्ञान पारमार्थिक नहीं है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है "थवा एव अयं आश्मास्रवयोः भेदं जानाति तदा एव क्रोधादिभ्यः आत्रवेभ्यः निवर्तते तेभ्यः अनिवर्तमानस्य पारमार्थिक तद्भेद विज्ञानासिद्ध।।" प्रसंयतसम्यग्ज्ञानी का सम्यग्ज्ञान होते हुए भी पारमार्थिक ज्ञान नहीं है, इसीलिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने शीलपाहुड़ गाथा ५ में तथा श्री अकलंकदेव ने 'हतं ज्ञानं क्रियाहीनं' इन शब्दों द्वारा उस सम्यग्ज्ञान को भी निरर्थक बतलाया है । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तो उस सम्यग्ज्ञान को अज्ञान ही कह दिया है, क्योंकि वह रागादि मानवों से निवृत्त नहीं है । "यतु तु आत्मास्त्रवयोः भेदज्ञानं अपि न आस्रवेभ्यः निवृतं भवति तत् ज्ञानं एव न भवति ।" - ज. ग. 2-7-70 / VII / ज्ञानचन्द, देहली उत्पाद व्यय निरपेक्ष नहीं होते शंका- श्री कानजी स्वामी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० १६६ पर शका-समाधान के अन्तर्गत लिखा है कि प्रत्येक द्रव्य के उत्पाद, व्यय, धौव्य निरपेक्ष होते हैं, क्या यह ठीक है ? समाधान - श्री जिनसेनाचार्य ने उत्पाद और व्यय का लक्षण इसप्रकार बतलाया है "अभूत्वाभाव उत्पादो भूत्वा चाभवने व्ययः ।" अर्थात् जो पर्याय पहले नहीं थी उसका उत्पन्न होना उत्पाद है । किसी पर्याय का उत्पन्न होकर नष्ट हो जाना 'व्यय' है । ऐसा श्री आदिनाथ भगवान ने दिव्यध्वनि में कहा है । ( आदिपुराण पर्व २४ श्लोक ११० ) यहाँ पर पर्याय की अपेक्षा उत्पाद व व्यय बतलाया है । यदि उत्पाद व व्यय को निरपेक्ष अर्थात् अहेतुक माना जायगा तो पर्याय के नित्यपने का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि श्री विद्यानन्द आचार्य ने 'आप्तपरीक्षा' में कहा है - "सतो हेतुरहितस्य नित्यत्वव्यवस्थितेः ।" अर्थात् - जिसका कोई कारण ( हेतु ) नहीं होता और मौजूद है वह नित्य व्यवस्थित किया गया है । इसीलिये श्री स्वामीसमंतभद्र आचार्य ने आप्तमीमांसा कारिका २४ में कहा है- "नैकं स्वस्मात् प्रजायते ।" श्री पं० जयचन्दजी कृत टीका- 'आप ही तैं आपकी उत्पत्ति हूँ नांही होय । तथा उपजना विनशना एक ही के आप ही ते अन्य कारण बिना होय नाहीं ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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