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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११९७ यदि भव्यत्व व अभव्यत्वभाव को गुण माना जावे तो द्रव्य की संख्या छह न रहकर सात हो जावेगी अर्थात द्रव्य को सातप्रकार का मानना पड़ेगा। जिसप्रकार धर्म और अधर्मद्रव्य में सब गुण तो एकसार अर्थात् बराबर हैं, किन्तु मात्र एक गुण में अन्तर है। एक में गतिहेतुत्वगुण है दूसरे में स्थिति हेतुत्व गुण है। एक गुण के भिन्न होने से भिन्न-भिन्न जाति के दो द्रव्य जैनागम में माने गये हैं। इसप्रकार भव्य और अभव्य में समस्त गुण एकसार अर्थात् बराबर होते हुए भी एक में भव्यत्व गुण मानने से और दूसरे में उससे भिन्न अभव्यत्वगुण मानने से इनको भिन्न दो जाति के द्रव्य मानने पड़ेंगे, क्योंकि 'गुण विशेष से द्रव्यविशेष जानना चाहिये ऐसा आगमवाक्य है (प्रवचनसार गाथा १३४, तत्वप्रदीपिका वृत्ति )। श्रीमान सिद्धान्तमहोदधि तकरत्न पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य ने 'भव्य' शब्द का निरुक्ति अर्थ इसप्रकार किया है-"भविया, सिद्धी जेसि" "भवितु योग्यो भव्यः" इसप्रकार 'भू' धातु से 'यत्' प्रत्यय कर भविष्य योग्यता अनुसार बनाया गया शब्द ही भव्य को अन्तसहित कर रहा है, क्योंकि सिद्धि हो जाने पर भव्यता मरकर भूतता उपज चुकी है। (जनदर्शन सोलापुर, १० जनवरी १९५८ पृष्ठ ५ ) यदि 'भव्यत्व' को शक्ति भी स्वीकार किया जावे तो यह पर्यायशक्ति या अनित्यशक्ति है । नित्य या द्रव्यत्वशक्ति नहीं है । इसप्रकार २० जून १९५७ के जैन-संदेश में प्रकाशित समाधान में जो लिखा गया है वह आगमानुकूल है, यदि उसका सोनगढ़ मोक्षशास्त्र टीका से विरोध पाता है तो आये, क्योंकि उक्त टोका आगम अनुकूल नहीं है। -ज.सं. 31-7-58/7-8-58/V/ हुलासचन्द शुद्ध द्रव्यों में अर्थपर्याय का अस्तित्व शंका-क्या शुद्धद्रव्यों में भी निरन्तर अर्थपर्यायरूप परिवर्तन होता रहता है ? विस्तार से स्पष्ट करें। समाधान-शुद्धद्रव्यों में भी अर्थपर्याय होती है, अन्यथा द्रव्य कूटस्थ हो जायगा और उत्पाद व्ययरहित हो जाने से द्रव्य के प्रभाव का प्रसंग आयगा। शुद्धद्रव्यों में अगुरुलघुगुण के द्वारा प्रतिसमय नियत क्रम से षटस्थानपतित हानि-वृद्धिरूप परिणमन होता रहता है। यदि एकगुण में भी परिणमन होता है तो द्रव्य में परिणमन होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि द्रव्य और गुण का कालिक तादात्म्य-सम्बन्ध है। यही कथन आलापपद्धति, प्रवचनसार गाथा ९३ तथा पंचास्तिकाय गाथा ५ एवं १६ की जयसेनाचार्य कृत टीका में है। -पत्र 16-11-79/ ज. ला.जन, भीण्डर (१) परिस्पन्द व क्रिया कथंचित् भिन्न हैं (२) सिद्धों व परमाणुओं में गति सम्भव है, पर परिस्पन्द नहीं शंका-क्रिया तथा परिस्पन्द में क्या अन्तर है ? गति तथा परिस्पन्द में क्या अन्तर है? पूदगलपरमाणु में किसरूप क्रिया होती है ? परिस्पन्दरूप या मात्र गतिरूप अथवा उभयस्वरूप ? सिद्धों की ऊध्वंगति में परिस्पन्द होता है या नहीं ? समाधान-क्रिया तथा परिस्पन्द कथंचित् एक हैं, कथचित् भिन्न हैं। इसीप्रकार गति व परिस्पन्द के विषय में जानना चाहिए। सुदर्शन मेरु तथा अकृत्रिम चत्य-चैत्यालयों में गति रूप किया तो नहीं होती, परन्त प्रदेश-परिस्पन्द होता है। पुद्गलपरमाणु में गतिरूप क्रिया होती है, किन्तु प्रदेश-परिस्पन्द नहीं होता, क्योंकि वह एक-प्रदेशी है। पंचास्तिकाय में लिखा है-जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरंगसाधनं कर्मनोकर्मोपचयरूपाः पुदगला इति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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