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________________ ११९६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार: भव्यजीवों का प्रमाण अनन्त है। और अनन्त बही कहलाता है जो संख्यात या असंख्यातप्रमाणराशि के व्यय होने पर भी अनन्तकाल से भी समाप्त नहीं होता है। कहा भी है-व्यय के होते रहने पर भी अनन्तकाल के द्वारा भी जो राशि समाप्त नहीं होती, उसे महर्षियों ने 'अनन्त' इस नाम से विनिर्दिष्ट किया है। (षटखंडागम पस्तक ४ पृष्ठ ३३८)। भव्यजीव अनन्त होते हैं । सान्तराशि को अनन्तपना नहीं बन सकता, क्योंकि सांत को प्रनन्त मानने में विरोध आता है। यदि सव्यय और निराय राशि को भी अनन्त न माना जावे तो एक को भी अनन्त मानने का प्रसंग आ जायगा । व्यय होते हुए भी अनन्त का क्षय नहीं होता है, यह एकान्तनियम है, (षट्खंडागम पुस्तक १ पृष्ठ ३९२ )। इस पागम प्रमाण से यह सिद्ध हो गया कि मोक्ष जाते हुए भी भव्यजीवों का अन्त नहीं होगा। प्रतः संसार में भव्य तथा अभव्यजीव सदा बने रहेंगे। इन दोनों में से किसी एक का कभी भी व्युच्छेद नहीं होगा। -जे.सं. 2-1-58/V/ला. घ. नाहटा भव्यभाव व प्रभव्यभाव पर्याय हैं, गुरग नहीं शंका-२० जून १९५७ के जनसंदेश में भव्य व अभव्यभाव को पर्याय बताया है, किन्तु सोनगढ़ से प्रकाशित मोक्षशास्त्र में पृ० २२७ पर भव्य स्व व अभव्यत्वभाव को अनुजीवी गुण कहा है। फिर उक्त जनसंदेश में किये गये समाधान में आगम से विरोध क्यों आता है ? समाधान–२० जून १९५७ के जैनसंदेश में किये गये उक्त समाधान में 'षट्खंडागमरूपी महान्ग्रन्थ द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि भव्यत्व-अभव्यत्वभाव पर्याय हैं गुण नहीं हैं। किसी आचार्य रचित ग्रन्थ में 'भव्यत्व व प्रभव्यत्वभाव को अनुजीवी गुण कहा हो' मेरे देखने में नहीं आया है । सोनगढ़ से प्रकाशित मोक्षशास्त्र टीका में भव्यत्व व प्रभव्यत्वभाव को अनुजीवीगुण कहा है, किन्तु वहाँ पर भी किसी दिगम्बर जैनाचार्य रचित ग्रन्थ का प्रमाण नहीं दिया है। सोनगढ़ की मोक्षशास्त्र टीका में अनेक ऐसी बातें लिखी गई हैं जो दिगम्बर जैनाचार्यों के मत से विरुद्ध हैं। अतः उक्त टीका को आगम कहना उचित नहीं है। श्री समयसार को टीका में भी श्री जयसेनाचार्य ने भी भव्यत्व-अभव्यत्वभाव को गुण नहीं माना है। वहाँ इसप्रकार कहा है 'दशप्राणरूपंजीवत्वं भव्यामव्यत्वद्वयं तत्पर्यायाथिक नयाश्रितत्वादशद्धपारिणामिकभावसंज्ञमिति ।' अर्थ-दशप्राणरूपी जीवत्वभाव, भव्यत्वभाव व अभव्यत्व ये तीनों अशुद्धपरिणामिक भाव हैं, क्योंकि ये भाव पर्यायाथिकनय के आश्रित हैं । ( गाथा ३२० पर तात्पर्यवृत्तिः टोका पृष्ठ ४२३ रायचन्द्र प्रथमाला)। वृहद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की संस्कृत टीका में भी इसप्रकार कहा है-'कमजनित दशप्राणरूपं जीवत्वं भव्यत्वम अभव्यत्वं चेतित्रयं, तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाधितत्वात्पर्यात्वात्पर्यापाथिकसंज्ञत्वाशद्धपारिणामिकभावं उच्यते।' अर्थ-कर्म से उत्पन्न दशप्रकार के प्राणोंरूप जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व ये तीनों विनाशशील होने के कारण पर्याय के आश्रित होने से पर्यायाथिकनय की अपेक्षा अशुद्धपारिणामिकभाव कहे जाते हैं । इन उपर्युक्त दो आध्यात्मिक ग्रन्थों के आधार से भी यह सिद्ध होता है कि भव्यत्व व प्रभव्यत्वभाव पर्याय हैं । यदि ये दोनों भाव गुण होते तो इनको विनाशशील न लिखते । अभव्यत्वभाव विनाशशील होते हुए भी उसका विनाश नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक पर्याय का विनाश अवश्य होना चाहिये ऐसा एकान्त नहीं है ( षट्खंडागम पुस्तक ७ पृष्ठ १७८)। भव्यत्वभाव का अभाव होता है ऐसा मोक्षशास्त्र अध्याय १० सूत्र ३ में श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने कहा है तथा राजवातिक टीका में श्री अकलंकदेव ने भी इसीप्रकार कहा है। अतः भव्यत्व-अभव्यत्वभाव गुण नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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