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________________ ११९२ 1 [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार। द्रव्य का परिणमन दो प्रकार का है। अनादिपरिणमन, दूसरा आदिपरिणमन । धर्मादि द्रव्यों का गतिउपग्रह प्रादि जो गुण है वह अनादिपरिणमन है। बाह्य निमित्तों के कारण जो उत्पाद होता है अर्थात जो पर्याय उत्पन्न होती है और व्यय ( नाश ) होती है वह आदिमान परिणमन है। इस कथन से भी यह ज्ञात होता है कि अनादिपरिणमन अर्थात् प्रक्रमवर्तीपर्याय गुण है। और क्रम-क्रम से उत्पन्न होने वाली अर्थात् आदिमान् परिणमन क्रमवर्तीपर्याय है। -जं. ग. 18-12-75/VIII/एक समय में एक गुण की एक ही पर्याय होती है शंका-एकसमय में एकगुण की एक ही पर्याय होती है । क्या यह अकाटय निरपवाव नियम है। समाधान-पर्याय क्रमवर्ती होती है और गुण सहवर्ती होते हैं। अतः एकद्रव्य में एकसमय में अनेकगुण युगपत् रहते हैं, किन्तु पर्याय एक ही होगी, क्योंकि पर्याय क्रमवर्ती है सहवर्ती नहीं है । अतः यह अकाटय निरपवाद नियम है कि एकगुण की एकसमय में एक ही पर्याय होगी। गुण की पर्याय का लक्षण इसप्रकार है ___ 'गुणविकाराः पर्यायाः ॥१५॥ क्रमवर्तिनः पर्यायाः ॥९२॥ ( आलापपद्धति ) क्रममाविनः पर्यायाः। ( नयचक्र ) पर्येति समये समये उत्पादविनाशं च गच्छतीति पर्यायः। (स्वा. का. टीका) गुण का विकार पर्याय है। क्रम-क्रम से होनेवाली पर्याय है। अथवा जो समय-समय में उत्पन्न हो और विनाश को प्राप्त हो वह पर्याय है। -जे. ग. 29-1-76/VI/I. ला. गेंन, भीण्डर रागादि भाव और विकल्प भाव में अन्तर शंका-रागाविभाव और विकल्पभावों में क्या अन्तर है ? समाधान-रागादि भाव विकल्परूप ही हैं । जैसे कहा भी है'अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति ।' ( वृ. द्र. सं. गा. ४१ टीका ) अंतरंग में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इसप्रकार का हर्ष-विषाद विकल्प है। 'विषयानन्दरूपं स्वसंवेदनं रागसम्वित्तिविकल्परूपेण सविकल्पम ।' विषयानन्दरूप जो स्वसंवेदन है वह राग के जानने रूप विकल्पस्वरूप होने से सविकल्प है। वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ४२ की टीका में 'सम्मण्णाणं सायार' की व्याख्या इसप्रकार की है 'सम्यग्ज्ञानं भवति । तच्च कथंभूतं ? घटोऽयं पटोऽयमित्यादि ग्रहणण्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थः।' यहाँ पर घट-पट आदि के निश्चयात्मक जाननेरूप जो साकार ज्ञानोपयोग है उसको भी विकल्प कहा है। दर्शन को निर्विकल्प कहा है, उसकी अपेक्षा ज्ञान को सविकल्प कहा गया है। -ज.ग.2-12-71/VIII/ रो. ला. मित्तल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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