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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११९१ पर्याय तथा द्रव्य का लक्षण शंका-'जैन सिद्धान्तप्रवेशिका' में गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं और गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं। ऐसा लिखा है । यह लक्षण ठीक है क्या ? ___ समाधान-तत्त्वार्थ सूत्र में 'सद्व्यलक्षणम् ॥२९॥ उत्पादव्ययप्रौव्ययुक्त सत् ॥३०॥ गुणपर्ययवद्रव्यम् ॥३८॥' द्रव्य के 'सत्', 'उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य' 'गुण-पर्यायवाला' ये तीन लक्षण दिये हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १० में भी ये ही तीनों लक्षण दिये हैं । तथा । गुणो द्रव्यविधानं स्यात् पर्यायो द्रष्य विक्रिया । द्रव्यं ह तसिद्ध स्यातसमुदायस्तयोद्धयोः ॥६/६॥ तस्वार्थसार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी इस श्लोक में गुण और पर्याय इन दोनों के समूह को द्रव्य कहा है। प्रवचनसार गाथा ९३ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने द्रव्यपर्याय व गुणपर्याय दो प्रकार की पर्यायें बतलाई हैं। गुणों के समूह को द्रव्य और गुणविकार को पर्याय कहने से द्रव्यपर्याय छूट जाती है । गुणों के बिना द्रव्य नहीं हो सकता और द्रव्य के बिना गुण नहीं हो सकते हैं इस अपेक्षा से गुण के समूह को द्रव्य कहा जा सकता है। गुण विकार को गुणपर्याय कहते हैं। सामान्य पर्याय का लक्षण क्रमवर्ती है। 'क्रमवतिनः पर्यायाः' (आलापपद्धति ) । 'व्यतिरेको विशेषश्च भेवः पर्यायवाचकाः ।' अर्थात् व्यतिरेक, विशेष, भेद ये पर्याय के वाचक शब्द हैं-तत्त्वार्थसार । विद्वान् इस पर विशेष प्रकाश डालने की कृपा करेंगे। -जे. ग. 1-4-71/VII/ र. ला. जैन, मेरठ विभावरूप गुण नहीं होता, विभावरूप तो पर्याय होती है शंका-गुण तो अनादि अनन्त हैं फिर संसारावस्था के विभावगुणों का मोक्ष अवस्था में नाश क्यों हो जाता है, क्योंकि मतिज्ञानादि गुणों का मोक्ष में तो नाश माना है ही। तब तो फिर गुण अनादि-सान्त हुए ना ? न कि अनादि अनन्त । समाधान-विभावगुण नहीं होते । विभावपर्याय हैं । -पत 6-5-80/ज. ला. जैन, भीण्डर क्रमाक्रमवर्ती पर्यायों से अभिप्राय शंका--क्रमवर्तीपर्याय और अक्रमवीपर्याय से क्या अभिप्राय है? समाधान-'गुणपर्ययवद्रव्यम् ।' अर्थात् द्रव्य गुणपर्यायवाला है। 'सहभुवो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाः' ॥९२॥ ( आलापपद्धति ) अर्थात् द्रव्य के साथ रहनेवाला गुण है और क्रम से होने वाली पर्याय है। ___ अक्रमवर्ती का अर्थ है क्रम से न हो अर्थात् सहवर्ती हो अता प्रक्रमवर्ती से गुण का ग्रहण होता है। परिणाम दो प्रकार के हैं-अनादि परिणाम और सादि परिणाम । 'परिणामो विधा भिद्यते । अनादिराविमांश्चेति । तत्रामावि धर्मादीनां गत्युपग्रहादिः । आविमांश्च बाह्य. प्रत्ययापावितोत्पादः।' रा.वा.५४२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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