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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ११८६ 'अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षट्स्थानगतकषायहानिवृद्धि विशुद्धसंक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः।' -पंचास्तिकाय गाथा १६ टीका अर्थ-कषायों को षट्स्थानगत हानि-वृद्धि विशुद्ध या संक्लेशरूप शुभ-अशुभ लेश्यानों के स्थानों में जीव की विभावअर्थपर्यायें जाननी चाहिये । द्रव्य और गुण इन दोनों की स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार की पर्यायें होती हैं। 'व्यञ्जन पर्यायास्ते द्वधा स्वभावविभावपर्यायभेदात् ।' स्वभावव्यंजनपर्याय और विभावव्यञ्जनपर्याय के भेद से व्यञ्जनपर्याय दो प्रकार की है। 'विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाश्चतुविधा नरनारकाविपर्याया अथवा चतुरशीतिलक्षायोन्यः ॥१९॥'मालापपद्धति नर, नारकादिरूप चार प्रकार की अथवा चौरासीलाख योनिरूप जीव को विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याय है। 'विमावगुणव्यञ्जनपर्यायामत्यादयः ॥२०॥' आलापपद्धति अर्थ-मतिज्ञानादिक जीव की विभावगुणव्यञ्जनपर्याय है। 'स्वभावद्रव्यध्यञ्जनपर्यायाश्चरमशरीरात किञ्चिन्यून सिवपर्यायाः ॥२१॥' आलापपद्धति अर्थ-अन्तिमशरीर से कुछ कम जो सिद्धपर्याय है वह जीव की स्वभावद्रव्यम्यञ्जनपर्याय है। 'स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याया अनन्तचतुष्टयरूपा जीवस्य ॥२२॥' आलापपद्धति अर्थ-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीयं इस अनन्त चतुष्टय रूप जीव की स्वभावगुणव्यञ्जन पर्याय है। -जै. ग. 31-7-69/V/........ शुद्ध द्रव्यों में स्वभावव्यंजनपर्याय विषयक ऊहापोह शंका-शुद्धद्रव्यों में व्यञ्जनपर्याय होती है या नहीं ? आलापपद्धति में तो 'व्यञ्जनेन तु सम्बद्धौ अन्यो द्वौ जीवपुद्गलो' कहकर धर्मादिक के व्यंजनपर्याय का निषेध किया है। परन्तु जैन सिद्धांत प्रवेशिका में व्यंजनपर्याय को जो परिभाषा की है उसके अनुसार तो धर्मादिक के भी स्वभावव्यंजनपर्याय सिद्ध हो जाती है, क्योंकि धर्माविक व्रव्यचतुष्टय का अपना नियत आकार अवश्य है। इसलिये सभी शुद्धद्रव्यों में भी स्वभावव्यंजनपर्याय सिद्ध हो जाती है ? 'अभव्य' गुणपर्याय है या न्यपर्याय ? शुद्ध द्रव्यों में अर्थपर्याय का हेतु क्या है ? समाधान-प्रवचनसार गाथा ९३ की श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका तथा पंचास्तिकाय गाथा १६ की श्री जयसेनाचार्य कृत टीका से स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्यव्यंजनपर्याय विभावरूप ही होती है, क्योंकि समान जातीय मोर असमानजातीय द्रव्यव्यंजनपर्याय विभावरूप है। इसीलिये चार शुद्धद्रव्यों में विभावद्रव्यपर्याय अर्थात द्रव्यव्यंजनपर्याय का निषेध किया है। इन ४ शुद्ध द्रव्यों में स्वभावव्यंजनपर्याय होती है, ऐसा किसी भी ग्रन्थ में नहीं कहा गया है। परमात्मप्रकाश अ० २ गाथा २८ की टीका में भी स्वभावव्यंजनपर्याय नहीं कही गई। अभव्य अनादि-अनन्त व्यंजनपर्याय है, किन्तु यह विभावगुण पर्याय है। शुद्धद्रव्यों में अगुरुलघुगुण के कारण स्वभाव अर्थपर्याय होती है। -पन 25-11-79| ज. ला. जन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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