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________________ ११८८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । अर्थपर्याय सूक्ष्म है प्रतिक्षण नाथ होने वाली है तथा वचन के प्रगोचर है और व्यञ्जनपर्याय स्थूल होती है चिरकाल तक रहनेवाली, वचनगोचर व अल्पज्ञानी के दृष्टिगोचर होती है। प्रथंपर्याय और व्यञ्जनपर्यायों में कालकृत भेद है, क्योंकि समयवर्ती प्रर्थपर्याय है पौर चिरकालस्थायी व्यञ्जनपर्याय है। मतों व्यञ्जनपर्यायो वाग्गम्योऽनश्वरः स्थिरः। सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्यसंज्ञिकः ॥६॥४५॥ ज्ञानार्णव अर्थ-व्यंजनपर्याय मूर्तिक है, वचनगोचर है, अविनश्वर है, स्थिर है, किंतु अर्थपर्याय सूक्ष्म है और क्षणविध्वंसी है। 'अर्थपर्यायास्ते द्वधा स्वभावविभावपर्यायमेवात ॥१६॥' आलापपद्धति अर्थपर्याय दो प्रकार की होती हैं १. स्वभावपर्याय २. विभावपर्याय । बव्वगुणाण सहावा पज्जायं तह विहावदो रणेयं । जीवे जीवसहावा ते वि विहावा हु कम्मकदा ॥१९॥ (मयचक्र) द्रव्यपर्याय व गुणपर्याय दोनों स्वभाव व विभाव के भेद से दो प्रकार की हैं। जीव में जीवत्व स्वभावपर्याय और कर्मकृत विभावपर्याय है। 'कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिविभणिवा ।' (नि. सा. गा. १५) जो पर्यायें कर्मोपाधि से रहित हैं वे स्वभावपर्याय हैं। 'अगुरुलघुविकाराः स्वभावार्थपर्यायाः।' शुद्धद्रव्य में जो अगुरुल घुगुण का परिणाम है वह स्वाभाविक अर्थपर्याय है। संसारावस्था में इस स्वाभाविक प्रगुरुलघुगुण का अभाव है इसलिये संसारावस्था में अगुरुल घुगुणकृत स्वभावपर्याय नहीं होती है। कहा भी है'अगुरुवलहअत्तं णाम जीवस्स साहावियमस्थि चे ण संसारावस्थाए कम्मपरतंतम्मि तस्साभावा।' -धवल पु. ६ पृ. ५८ अर्थ-अगुरुल घुत्व तो जीव को स्वाभाविक गुण है, वह नामकर्म की प्रकृति कैसे हो सकता है ? नहीं, क्योंकि संसारावस्था में कर्मपरतन्त्र जीवके उस स्वाभाविक अगुरुल घुगुण का प्रभाव है। लेश्या में प्रतिसमय षट्स्थानगत हानि या वृद्धि होती रहती है, यह जीव को विभावअर्थपर्याय है। कहा भी है 'विभावार्थपर्यायः षड्विधाः मिथ्यात्वकषायरागद्वेषपुण्यपापरूपाध्यवसायाः ॥१८॥ आलापपद्धति अर्थ-विभावप्रर्थपर्याय छह प्रकार की हैं १. मिथ्यात्व २. कषाय ३. राग ४. द्वेष ५. पुण्य ६. पापरूप छह अध्यवसाय हैं। अर्थात् संसारी जीव में मोहनीयकर्मोदय के कारण जो प्रतिसमय परिणमन होता है वह जीव की विभावअर्थपर्याय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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